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सु-विख्यात कुमांऊनी होली गायन की उत्तराखंड मे मची है धूम

सी एम पपनैं

भवाली (नैनीताल)। कोरोना संक्रमण की बढती दहशत के मद्देनजर, उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र मे, अपेक्षाकृत सामान्य रूप से, होली का त्योहार विभिन्न प्रकार के आयोजन कर, मनाया जा रहा है। नैनीताल में शारदा संघ, युगमंच, नैना देवी ट्रस्ट व नैनीताल समाचार द्वारा होली के अनेको कार्यक्रम, राजीव लोचन साह, चंद्रलाल साह, घनश्याम लाल साह, राजा साह सखा जी, भाष्कर बिष्ट, मंजु रोतेला, डी के शर्मा, विनीता यशस्वी, डा.हिमांशु पांडे व जहूर आलम इत्यादि के सानिध्य मे, 24 से 29 मार्च तक आयोजित किए जा रहे हैं।

24 मार्च को नैना देवी मंदिर से खडी होली का आयोजन, देवेन्द्र ओली के नेतृत्व मे खेतीहाल के चालीस होल्यारो के दल के साथ किया गया। रामलीला मंच मल्लीताल मे, मुख्य अतिथियों द्वारा होली रंग उड़ा कर, होली महोत्सव 2021 का शुभारंभ किया गया। इस अवसर पर पुरुषो की खडी होली, महिला बैठ होली, एकल गायन, युवा व बाल होल्यारो द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों से आमन्त्रित दिग्गज होल्यारो की बैठ होली का आयोजन। होल्यारो के अतुलनीय योगदान हेतु सम्मान। 28 मार्च को होलिका दहन तथा 29 मार्च छलडी के दिन, शारदा संघ से आशीष जुलूश, नैनीताल, होली त्योहार के, मुख्य कार्यक्रमो मे समाहित हैं।

उत्तराखंड कुमांऊ के अन्य प्रमुख इलाको, हल्द्वानी, भवाली, गंगोलीहाट, पिथौरागढ, चम्पावत, लोहाघाट, अल्मोड़ा एव रानीखेत मे, रंग एकादशी के दिन, चीर बंधन के बाद से, स्थानीय होली गायको व रसिको के मध्य, दिन-रात होली गायन की खुमारी चढी हुई है।

राष्ट्रीय फलक पर, ब्रज के बाद, कुमांऊ की होली को, विशिष्ट माना जाता है। उत्तराखंड की कुमांऊनी होली गायन का इतिहास, लगभग दो सौ साल पुराना है। चंद राजाओं के समय से होली गायन का उल्लेख मिलता है। होली गायन कुमांऊनी संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। यह एक ऐसी परंपरा है, जो दशकों से राष्ट्रीय फलक पर, लोकप्रिय रही है। उत्तराखंड के कुमांऊ क्षेत्र मे, होली खेलने व गाने की विशिष्ट परंपरा रही है।

कुमांऊ की होली, अनोखी होती है। जिसे रागो व रंगो से, मनाया जाता है। पौष का महिना आते ही, बैठकी होली से इस पर्व की शुरुआत होती है। बसंत पंचमी तक आध्यात्मिक। पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस मे डूबी होली गीत, गाए जाते हैं।

बसंत पंचमी के आते ही, होल्यारो का उत्साह, देखने योग्य होता है। महाशिव रात्रि से खडी होली शुरू हो जाती है। रंग एकादशी के दिन चीर बांधी जाती है। एकादशी से होली का त्योहार, पूरे सवाब पर चढ़ जाता है। महिला व पुरुष समूह कदमताल करते, गीतों मे झूमते हैं।

सांझ ढलते ही, होल्यारो की महफिले, सज जाती हैं। होली की बैठकों मे, हर उम्र के लोग शामिल होते हैं। होल्यार मुक्त कंठ से भाग लगाते हैं। वाद्य यंत्रों की जुगल बंदी इस उल्लास को और खास बनाती है। ढोल, मंजीरे, हारमोनियम, हुड़का, चिमटा, ढपली, थाली की मधुर ध्वनि संगीत मे जान डालती है। रात भर होली गायन का क्रम, सवाब पर होता है। होल्यारो की पूरी रात, मस्ती में गुजर जाती है। पता ही नहीं चलता कि, भोर कब हुई।

होली बैठक में, राग आधारित गायन ही किया जाता है। सांयकालीन राग से, बैठक का शुभारंभ किया जाता है। गायन मे सबसे पहले भगवान गणेश का स्मरण किया जाता है। अन्य देवी-देवताओ, प्रकृति, प्रेम इत्यादि के गीत गाए जाते हैं। कुछ गीतों मे मस्ती का मिला-जुला घोल भी समाहित रहता है। सुबह भैरवी राग गाकर, होली बैठक समाप्त की जाती है।

होली गायन मे बसंत पंचमी से प्राकृतिक वर्णन के गीतों की प्रमुखता रहती है। होली गायन मे, भक्ति, बैराग्य, विरह, कृष्ण गोपियो की हंसी ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर भाभी की छेड़-छाड़, सभी रस मिलते हैं। होली गायन मे वात्सल्य, श्रृंगार व भक्ति रस का एक साथ मौजूद रहना, इस होली गायन की खास खूबी है। सभी बंदिशे राग-रागीनियो मे गायी जाती हैं। यह खांटी का शास्त्रीय गायन कखलाया जाता है।

बैठकी होली, त्योहार को एक गरिमा देती हैं। जो अपने स्मृद्ध लोकसंगीत की वजह से उत्तराखंड की संस्कृति मे रच बस गई है। कुमांऊ का राग आधारित होली गायन, कुमांऊनी नाम से जरूर जाना जाता है, पर इसकी भाषा ब्रज है, जो इसकी खूबियो मे सुमार रहा है।

कुमांऊ मे महिलाओ का समूह, अलग-अलग घरों में, दिन मे होली गायन का आयोजन करती हैं। तो रात में, पुरुषो की टोली, होली गीत गाती है। महिलाओ और पुरुषो की होली मे अंतर भी देखा जाता है। महिलाऐ बैठ कर, होली गीत गाती हैं, वहीं पुरुषो की होली, दो तरह की होती है। पुरुष खडी होली मे गोल घेरे के बीच, हुड़का, ढोलक, मंजीरा आदि बजा, घेरे मे नाच, ठुमके लगाते हुए, होली गीत गाते हैं। होल्यारो की टोली को, प्रत्येक घर पर गुड़, मिठाई, गुजिया व आलू के गुटके व भांग की चटनी बाटी जाती है। हर घर में महिलाओ का उल्लास, उमंग और पारंपरिक गीतों की मधुर ध्वनि, मन को सुकून देती है। अनेको संगठन, पुरुषो की खडी होली का आयोजन भी करते हैं। आधुनिक बदलाव के दौर मे, पुरुष व महिलाओ की सामूहिक बैठके भी, आयोजित होने लगी हैं।

होली मे पुरुष होल्यार, चटख सफेद रंग का कुर्ता व पायजामा तथा महिलाऐ परंपरागत साड़ियां धारण कर होली समारोह मे प्रतिभाग करती हैं। छलडी से सप्ताह पूर्व, कपड़ो में रंग छिड़का जाता है। होली आयोजन मे अबीर, गुलाल लगाने का प्रचलन है।

होली त्योहार मे कई जगह चीर प्रथा का भी प्रचलन है। हर घर से, नए कपडे का एक छोटा टुकड़ा जमा कर, पवित्र ‘पौय’ पेड की डाली पर, बाँधा जाता है। बडे आंगन में यह चीर की डाली, गड्डा खोद, गाड़ कर, खडी की जाती है। धुलेडी के दिन, एक होल्यार उक्त चीर को लेकर, अन्य होल्यारो के आगे-आगे चलता है। बांकी होल्यारो की टोली उसके पीछ चलती है। पुरुष टोली के बीच एक लड़का, लड़की बन, स्वांग रच, हंसी ठिठोली कर, होली की मस्ती मे, त्योहार मे उमंग व हर्षोल्लास का रंग भरता है। महिलाओ की टोली में, उक्त स्वांग, महिला पुरुष रूप धारण कर, हंसी ठिठोली करती है।

पूर्णिमा के दिन चीर दहन और अगले दिन, छरडी होती है। होली के अगले दिन, टीका कार्यक्रम चलता है। गांव, कस्बो व शहर के मंदिर में सब लोग जुटते हैं। मीठा पकवान बना, सब मिल बैठ कर खाते हैं। होली टीका के साथ, त्योहार का समापन होने पर, सब एक दूसरे को बधाई देते हैं।

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