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उत्तराखंड का वैशाख पावन बाल पर्व ‘फूलदेई’ सम्पन्न

सी एम पपनैं

भतरोज (नैनीताल। नैनीताल जिले के भतरोज तथा कोस्या क्षेत्र के दूरदराज गांवो मे निवासरत नोनिहालो द्वारा फूलदेई पर्व कोरोना संक्रमण की दहशत को दरकिनार कर बड़ी निष्ठा व उत्साह के साथ मनाया गया। नोनिहालो द्वारा गांव के प्रत्येक घर की ध्येली पर बाशिंग, गुलवंश, संगीन, मौनी, क्वैराव, प्योली तथा बुरांश के फूल निवासरत गांव वालों की मुख्य ध्येली पर उनकी समृद्धि व सम्पन्नता हेतु चढ़ाए गए।

प्रकृति से जुड़ा तथा गढ़-कुमांऊ की अनूठी सामाजिक तथा पारंपरिक संस्कृति का प्रतीक हिमालयी पावन ऋतुपर्व फूलदेई उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों मे पारंपरिक तौर पर बाल पर्व के रूप में पीढी दर पीढ़ी चैत्र संक्रांति के दिन मनाया जाता है। कुछ स्थानों मे यह पर्व आठ दिनों तक व टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक मनाए जाने की परंपरा रही है। नैनीताल जिले के भतरोज व कोस्या के इलाके में इस बाल पर्व को वैशाखी के दिन मनाए जाने की परंपरा रही है।

उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाने तथा जंगलो मे बुरांश सहित विभिन्न प्रकार के फूलों की चादर बिछ जाने पर, प्रकृति का सौन्दर्य निखरा देख, नोनिहालो के बाल मन द्वारा बसंत ऋतु के सौन्दर्य की भांति अपने गांव के हर घर परिवार के सौंदर्य व खुशहाली की चाहत हेतु फूलदेई पर्व मनाए जाने की परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलायमान रही है।

फूलदेई त्यौहार की पूर्वसंध्या से पूर्व गांव के नोनिहाल जंगल से विभिन्न प्रकार के फूलो को तोड़, फूलदेई के शुभदिन उक्त सुगंध व सौन्दर्यमानयुक्त फूलों को गांव के प्रत्येक घर की चौखट पर चढ़ा तथा बालमन के आसिर बचनों-
फूल देई, छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार…हम ओल बारंबार…।
के बोलों के साथ उत्साहित होकर प्रत्येक घर से उपहार स्वरूप गुड़, चावल, गेहूं इत्यादि प्राप्त कर आनंद मनाते हैं।

बसंत की अगुवाई वाले अनेक किवदंतियों से जुड़े उत्तराखंड के चैत्रमास मे मनाए जाने वाले फूलदेई त्यौहार के इस पावन पर्व के दिन से ही हिंदू शक संवत आरंभ होता है। यही वह ऋतु है जहां से सृष्टि ने अपना श्रंगार करना शुरू किया तथा मानव के ह्रदय मे कोमलता का वास उत्पन्न हुआ।

गांवो से शहरो को बढ़ते पलायन तथा शहरीकरण से जंगलो का सफाया होने से प्रकृति का हास तथा देश-विदेश के विभिन्न भागों मे प्रवासरत उत्तराखंड के प्रवासियों की नई पीढ़ी का अपनी स्मृद्ध परम्पराओं से अनभिज्ञ होने से प्रकृति से जुड़े फूलदेई त्यौहार पर भी प्रभाव पड़ा है। ऐसे में सुखद लगता है, यह देख, पहाड़ के गांवो मे आज भी नोनिहालो द्वारा फूलदेई की पारंपरिक परिपाठी को संजोए रख उस परिपाठी को जिंदा रखना तथा प्रवास मे निवासरत कुछ प्रवासी उत्तराखंडी संगठनों द्वारा प्रकृति से जुड़े फूलदेई त्यौहार के संरक्षण व संवर्धन हेतु अग्रसर रहना।

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