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रानीखेत के बगट हस्तशिल्पी भुवन चंद्र साह चार अन्य हस्तशिल्पियों के साथ उत्तराखंड राज्य ‘शिल्प रत्न’ सम्मान से नवाजे गए

सी एम पपनैं
देहरादून। हस्तशिल्प उत्पादों मे उत्कृष्ट कार्य करने वाले पांच हस्तशिल्पियों को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत द्वारा उत्तराखंड राज्य ‘शिल्प रत्न’ सम्मान से नवाजा गया। सम्मानित होने वालो मे बेड़ीनाग के किसन राम (रिंगाल), बागेश्वर के ललिता प्रसाद (तांबा), रानीखेत के भुवन चंद्र साह (बगट), टिहरी की राधा देवी व आशा देवी (शॉल) को सम्मान स्वरूप एक लाख रुपयों का चैक, प्रशस्ति पत्र व शाल भेट किया गया।
हस्तकला उत्पाद के क्षेत्र मे जहां ताम्र, रिंगाल व शॉल से बने उत्पाद पुरानी हस्तकलाओं मे स्थान रखते हैं, वही बगट हस्तकला का चलन विगत चार दशकों से प्रकाश मे आया है। जिसके जनक ‘शिल्प रत्न’ से सम्मानित रानीखेत के भुवन चंद्र साह रहे हैं।
उत्तराखंड़ सरकार हस्तशिल्पी भुवन चन्द्र साह को राज्य की अनूठी सांस्कृतिक पहचान उजागर करने पर इससे पूर्व सन् 2016 में ‘उत्तराखंड़ राज्य हस्तशिल्प पुरूष्कार’ से भी सम्मानित कर चुकी है।
चीड़ वनों मे बेकार पड़े ‘बगट’ व ‘ठीठे’ पर की गई नायाब हस्तकला से प्रभावित होकर अनेकों प्रतिष्ठित सामाजिक संस्थाऐं भी इस हस्तशिल्पी को सम्मानित कर चुकी हैं।
थल सेना से सन् 1982 में अवकाश प्राप्त उत्तराखंड़ रानीखेत निवासी भुवन चन्द्र साह ने सन् 1986 में पहली बार ‘बगट’ पर हस्तशिल्प के तहत कार्य करना शुरू किया था। निरन्तर तैंतीस वर्षो से हस्तकला के क्षेत्र में गहन कार्य कर इस हस्तशिल्पी ने न सिर्फ युवाओं को प्रशिक्षित किया, बल्कि उन्हें स्वरोजगार की दिशा की ओर बढ़ा कर, आत्म निर्भर भी बनाया है।
बढ़ती बेरोजगारी से उत्तराखंड़ के चीड़ वन अब धीरे-धीरे वहां के स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के नजरिए से कारगर साबित हो रहे हैं। लोगों ने रोजगार का जरिया चीड़ के पेड़ों से ही खोज निकाला है। अच्छी बात यह हुई कि लोगों ने ऐसा करते हुए पर्यावरण से छेड़-छाड़ भी नहीं की। एक स्वभाविक प्रक्रिया के रूप में हासिल कच्चे माल पिरूल, स्योत और बगट से विभिन्न प्रकार के उत्पाद बनाने की जुगत भिड़ा ली है।
वन संपदा और पर्यावरण को आग से बचाने व दूषित होने तथा लोगो के स्व-रोजगार के लिए हस्तशिल्पी भुवन चंद्र साह ने जो युक्ति निकाली उनमें चीड़ के पेड़ से स्वभाविक रूप से प्राप्त ‘बगट’ व ‘ठीटे’ को हस्तशिल्प के तहत इस्तेमाल कर विभिन्न प्रकार के उत्पाद बना एक नायाब उदाहरण प्रस्तुत किया  है। इस नायाब प्रयोग को स्थानीय लोगों द्वारा अपनाए जाने से नए हस्तशिल्प उद्योग के श्रीगणेश के साथ-साथ निर्मित उत्पादों से स्वरोजगार का बड़ा जरिया स्थापित किए जाने की संभावना व्यक्त की जा सकती है।
चीड़ का ‘बगट’, ‘ठिट’ व ‘पिरूल’ वनों और पहाड़ी नदियों के इर्द-गिर्द बड़ी मात्रा में बेकार पड़ा रहता है। जिसे आम तौर पर स्थानीय लोग इक्ट्ठा कर इसका इस्तेमाल जलावन के रूप में करते रहे हैं। अब ‘बगट’ व ‘ठीठे’ का हस्तकला में उपयोग होने से चीड़ पेड़ की उपयोगिता बढ़ गई है।
मुख्यतया प्राकृतिक तौर पर प्राप्त चीड़ के ‘ठिट’ (फल), ‘बगट’ (छाल) व बुरादे पर उत्कृष्ट हस्तशिल्प से उत्तराखंड़ के पारंपरिक जेवरों में गुलबंद व कनफुल। वाद्ययन्त्र में हुड़का। वर्तनों में ठेकी व कस्यर। कृषि उपकरणों में दराती, कुटली, कुल्हाड़ी। अनेकों भारतीय महापुरुषों, उत्तराखंड़ में निर्मित प्रसिद्ध मंदिरों व स्थानीय मकानों की आकृतियां। टेलीफोन, टेबल लैम्प, बिजली के बड़े सैड व स्विच, बटन, फोटो फ्रेम, हाथ व दीवार घड़ी, बैल्ट, टाई व खेल के सजावटी सामान इत्यादि अनेकों प्रकार की मजबूत सजावटी कलाकृतियों को उसके वास्तविक रंग में उकेर कर व उन्हें बाजार में बिक्री हेतु मुहैया कर हस्तशिल्पी भुवन चंद्र साह ने चीड़ पेड़ की उपयोगिता सिद्ध की है।
‘बगट’ व ‘ठिट’ से निर्मित हस्तशिल्प का साजो-सामान प्लाष्टिक से हल्का, सस्ता, टिकाऊ व अपने वास्तविक रंग में निर्मित होने से  अत्यधिक आकर्षण शील है। निर्मित जेवर व अन्य कई वस्तुऐं फैशन का रूप रखने की ओर अग्रसर हैं। जेवरों में नग जड़ कर उन्हें ज्यादा कलात्मक बनाया गया है। अन्य उत्पाद शौकिया तौर पर घरों की सजावट के तहत उपयोग में लाए जाने योग्य हैं। बनी कलाकृतियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सुगमता से लाया ले जाया जा सकता है। उत्कृष्ट हस्तशिल्प की इन कलाकृतियों की बाजार मांग दिन पर दिन बढ़ती देखी जा रही है।
देहरादून निवासी वी पी नोटियाल ने विगत महीनों देहरादून मे प्रदर्शित हस्तकला प्रदर्शनी मे भुवन साह की बगट पर निर्मित हस्तकला से प्रभावित होकर एक लाख रुपयों का आर्डर प्रेषित किया था, जिनमे तीस हजार के सौ गुलबंद भी शामिल थे। बगट हस्तशिल्प निर्मित कलाकृतियों पर लोगो के बढ़ते आकर्षण व चाहत को देख, बगट आधारित इस नए नवेले हस्तशिल्प उघोग के उज्जवल भविष्य पर उम्मीदों भरा कयास लगाया जा सकता है।
हस्तशिल्प उपयोग में लाया जाने वाला ‘बगट’ प्रचुर मात्रा में विभिन्न रंगों में उपलब्ध होने से इस कारीगरी की कला को प्रमुखता से बढ़ाया भी जा सकता है।
बगट पर बनाई हस्तशिल्प की प्रदर्शनी अब तक उत्तराखंड़ के साथ-साथ देश के कई कस्बों, शहरों व महानगरों में आयोजित क्षेत्रीय व राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भी लगाई व सराही जा चुकी है। जाहिर है कि बगट के इस इस्तेमाल ने संभावनाओं के नए और उत्साह वर्धक स्व-रोजगार के द्वार खोलने के साथ-साथ उत्तराखंड़ को देश के हस्तशिल्प क्षेत्र में एक नई सांस्कृतिक पहचान देने की पहल की है।
अवलोकन कर ज्ञात होता है, इस सम्मानित हस्तशिल्पी ने अपनी पैत्रिक सीख की परिपाठी को आगे बढ़ाने की पहल की हैं। हस्तशिल्पी के दादा स्व.रामलाल साह ने अपने पिचहत्तर वर्षों के जीवनकाल में  विभिन्न प्रकार की महत्वपूर्ण मध्य हिमालयी वनस्पतियों पर निरंतर शोध कार्य कर उनकी उपयोगिता सिद्ध कर नाम कमाया था। पिता स्व.उमेश चन्द्र साह जो उत्तराखंड़ राज्य सरकार से सन् 2005 में सम्मानित किए गए थे, बागवानी, फूलों, विनाशक खर-पतवारों व विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों की गहन जानकारी रखते थे, जिनके गुण-दोषों की महत्ता का ज्ञान उन्होनें जनमानस को दिया था।
दादा व पिता की ज्ञानवर्धक कारगुजारियों से प्रेरित होकर चार दशक से निरंतर ‘बगट’ व ‘स्योत’ (ठिट) पर कारीगरी के साथ-साथ युवाओं को प्रशिक्षण व चीड़ के पेड़ की विविध प्रकार की उपयोगिता पर दिन-रात शोध कार्य कर रहे भुवन चंद्र साह का कथन है, अगर प्रदेश सरकार इस अनूठे हस्तशिल्प उत्पादों के बाजार मांग पर ध्यान देने के साथ-साथ ‘बगट’ निर्मित विभिन्न प्रकार के टिकाऊ ‘बगट’ बटनों को खादी व गांधी आश्रम के कपड़ों में प्लाष्टिक बटनों के स्थान पर प्राथमिकता दे तो उत्तराखंड़ का यह हस्तशिल्प स्वरोजगार के साथ-साथ राज्य का एक प्रमुख ‘बगट हस्तशिल्प’ कुटिर उद्योग मे स्थापित हो सकता है।
इस हेतु आयोजित सम्मान समारोह मे इस हस्तशिल्पी ने मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत से बात भी की। बटनों का आर्डर मिलने पर तुरंत पांच सौ महिलाओं को स्वरोजगार देने का वायदा भी किया। सम्मान समारोह मे उत्तराखंड सरकार की प्रिंसिपल सैक्रेट्री को कलात्मक पहाड़ी जेवरों के रूप-रंग व डिजाइनों के बावजूद भी इस हस्तशिल्पी ने अवगत कराया। जिनके आर्डर मिलने पर क्षेत्रीय रोजगार मे बढ़ोत्तरी के साथ-साथ लोगों की आर्थिक स्थति मजबूत दिशा की ओर बढ़ने की बात पर विश्वास पूर्वक बल दिया।
हस्तशिल्प कारीगरी से निर्मित ये उत्पाद उत्तराखंड़ की लोकसंस्कृति, परंपराओं व रीति-रिवाजों की पहचान से जुड़ा होने से राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर राज्य की नायाब हस्तकला व लोक संस्कृति की पहचान को समृद्ध करने मे भी सक्षम हैं।
‘बगट’ हस्तकला के साथ-साथ सम्मानित हस्तशिल्पी भुवन चंद्र साह ने चीड़ पेड़ पर गहन शोध कार्य भी किए हैं। अपने स्वयं के प्रयोगों का उल्लेख करते हुए इस हस्तशिल्पी का कथन है कि चीड़ पेड़ों के उन्मूलन की बजाय चीड़ के जंगलो को आग से बचाया जाना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक वृक्षों की तरह यह वृक्ष भी अत्यधिक उपयोगी व लाभकारी है। चीड़ वनों की हवा को मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे लाभकारी माना जाता है। खासकर तपेदिक की बीमारी में। चीड़ के जंगल की हवा तपेदिक के बीमारों के लिए रामबाण है। इसीलिए अधिकतर सैन्टोरियम चीड़ के जंगलों में ही निर्मित किए गए। उत्तराखंड़ नैनीताल जिले स्थित भवाली सैन्टोरियम इसका उदाहरण है। अंग्रेजों ने इस नामी तपेदिक उपचार केन्द्र की नीव रखी व देशभर के तपेदिक मरीज यहां स्वास्थ्य लाभ के लिए आते थे व स्वस्थ होकर लौटते थे।
इस हस्तशिल्पी का मानना है कि भारत के पहाड़ी राज्यों में बहुतायत में उपजते चीड़ वृक्षों की विभिन्न प्रजातियों पर शोध कार्य न होने से इसकी सही महत्ता व उपयोग से लोग अभी तक वन्छित रहे हैं। शोध कार्यो के बल ही इस वृक्ष की गुणवत्ता की प्रमाणिकता सिद्ध हो सकती है। विदेशों में चीड़ पेड़ की उपयोगिता शक्तिवर्धक मेडिसन के रूप में काम में लाई जा रही है। इसके हरे वून (पत्ते) जब तक इसकी नोक (सुई) न निकली हो इसे चाय की पत्ती के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है, जो स्वास्थ्य व शक्तिवर्धक के साथ एन्टीऔक्सीडैन्ट है। नोक निकल जाने पर इसके ऊपरी व निचले भाग को कैंची से काटकर इसे चाय पत्ती में प्रयोग किया जा रहा है।
चीड़ ‘बगट’ से निर्मित बर्तनों में जब इस हस्तशिल्पी ने फूल, हरा धनिया, नीबू इत्यादि को ढक कर इनकी कुम्हलाने व तरो-ताजगी की स्थिति पर परीक्षण किया तो जाना कि बहुत ही नाजुक फूल जो डाली से तोड़ने के दस मिनट बाद ही कुम्हला जाता है उसे लगभग दो दिनों तक, हरे धनिये को लगभग चार दिनों की अवधि तक तथा नीबू को लगभग तीन माह तक उसी तरोताजा स्थिति में पाया, जैसे इन्हें रखा गया था। बगट निर्मित बर्तनों में दही जमा कर उसके स्वाद व गुणवत्ता में अधिक पौष्टिकता तथा रात का रखा पानी सुबह सेवन करने पर शरीर में विशेष प्रकार की अदभुत शक्ति का संचार इस हस्तशिल्पी ने स्वयं के ऊपर किए गए प्रयोग के दौरान महसूस किया। इन प्रयोगों से इस हस्तशिल्पी को सही मायनों में चीड़ पेड़ की उपयोगिता सिद्ध होती नजर आयी।
इस हस्तशिल्पी का कथन है, चीड़ पेड़ से निकले ‘लीसे’ का उपयोग तारपीन तेल व चूड़ियां बनाने के साथ-साथ पहाड़ के ग्रामीण जन पैर की फटी ऐड़ियों को स्वस्थ रखने के लिए पारंपरिक तौर पर उपयोग करते आए हैं। उत्तराखंड़ में पैदा होने वाली चाय की पैकिंग हेतु इस पेड़ की लकड़ी की पेटियों को महत्ता दी गई व प्राकृतिक रूप से प्राप्त व दोष रहित पिरूल का उपयोग फलो को पकाने व उसको पैक करने के लिए। पिरूल में पके फल उसकी पौष्टिक्ता व गुणवत्ता को पूर्णतया बरकरार रखते हैं। वर्तमान में फल घातक कारबाइट में पकाऐ जा रहे हैं व प्लाष्टिक पेटियों में पैक किए जा रहे हैं जो स्वास्थ के लिए हानिकारक है। क्यों न योजना बना कर पिरूल का सदुपयोग किया जाय।
भुवन साह ने कहा, ग्रामीण जन पिरूल का सदुपयोग जलावन, विभिन्न घरेलू कार्यों व गाय-बच्छियों के नीचे बिछाने के लिए भी पारंपरिक तौर पर करते आए हैं। संसाधनों के लिहाज से जब पहाड़ी गांवों में मिट्टी तेल व बिजली नहीं होती थी तब रात्रि में चीड़ के छिलके ही प्रकाश का माध्यम होते थे व घरों में लकड़ी के जलावन में इन छिलकों की मुख्य भूमिका होती थी।
पलायन, रहन-सहन में बदलाव, बदलती जरूरतों व पालतू पशुओं की नगण्यता के साथ-साथ जंगल से ग्रामीणों के अधिकार खत्म होने के बाद से ग्राम वासियों की जंगलों के प्रति अरूचि व जंगल में आग लगने पर उसको बुझाने में दिलचस्पी न लेने से उत्तराखड़ के वनों में आग की घटनाए बढ़ी हैं। साथ ही वनों के ठेकेदारों को राजनैतिक पहुंच के आधार पर चीड़ वनों में ‘लीसा’ निकासी के ठेके देना व विपक्षी ठेकेदारों के बीच बैर-भाव उपजने से जंगलों को आग के हवाले कर, बदला लेना भी बढ़ती दावाग्नि के कारणों में रहा है। सरकार ग्रामीणों के साथ सद्व्यवहार का माहौल बना, जंगलो को विनाश से बचा सकती है।
इस हस्तशिल्पी के कथनानुसार पिछले कुछ दशकों में उत्तराखंड़ के जंगलों का जितना दोहन हुआ, उस अनुपात में उतने पेड़ों का रोपड़ नहीं। जिससे जंगलों का घनत्व कम हो वे सिकुड़ गए। प्राकृतिक जल स्त्रोतों का बहाव व पानी भी उस अनुपात में कम हो गया, या वे स्त्रोत सूखने की कगार पर आ गए।
इस हस्तशिल्पी के मतानुसार चीड़ पेड़ों को काट, उनका अस्तित्व खत्म कर, दावाग्नि व पानी की चिंन्ता से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। राजनैतिक स्तर पर आग से बर्बाद होते वनों व नए पेड़ों के रोपड़ व पर्यावरण को बचाने के नाम पर जो चिंन्ता व्यक्त की जा रही है वह वास्तविक रूप में धरातल पर नहीं दिख रही है। वनों के प्रति लोगों को जागरूक किया जाए व वनों के संरक्षण में ग्रामीणों की भागीदारी व उनके अधिकार सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। चीड़ वन नुकसान पहुंचा रहे हैं, यह सिर्फ उत्तराखंड़ में ही सुना जाता है। चीड़ प्रजाति के जंगल विश्व के अनेकों देशों जापान, अमेरिका व एशिया महाद्वीप के अनेक देशों में फैले हुए व सुरक्षित हैं। वहां के लोगों व सरकारों को इन चीड़ वनों पर कोई आपत्ति नही है। इन देशों की अर्थव्यवस्था को मजबूत दिशा देने में चीड़ वन सहायक हैं।
उत्तराखंड़ में चीड़ वन जल स्त्रोत सूखा कर नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं। असलियत में जल स्त्रोतो के पारंपरिक उद्गम स्थलों को विकास के नाम पर सिमैंट से पाट कर पानी की टंकिया बना दी गई हैं, जो पानी के लुप्त होकर सूखने की कगार पर पहुंचने का मुख्य कारण रहा है। उत्तराखंड़ में वनों व नदी किनारे रसूकदारों ने प्राकृतिक सौन्दर्य का विनाश कर सैंकड़ों रिसोर्ट बना लिए हैं।
विश्व प्रसिद्ध धरोहर जिमकार्बेट भी इनमें से एक उदाहरण है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों व पिंडारी ग्लेशियर तक सरकार विकास के नाम पर वनों का विनाश कर सड़क पहुंचा रही है। वन विनाश व यातायात की भारी आवाजाही से मध्य हिमालयन प्रकृति व पर्यावरण का कितना विनाश होगा, योजनाकार इस पर आंखें मूदे हुए हैं। विकास के नाम पर अवैध वन विनाश में बांज, बुरांश व देवदार के पेड़ों का भारी कटान हो रहा हैं, जिन्हें सरकार संरक्षण देने व उनके रोपड़ की बात करती है। पेड़ों के अवैध कटान की पुष्टि सम्पूर्ण उत्तराखंड़ में आग के हवाले किए गए जंगलों में उनके बहुतायत में बचे काले खूटों का अवलोकन कर किया जा सकता है।
अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक अकेले उत्तराखंड़ के चीड़ वनों से करीब एक मिलियन टन पिरूल प्राकृतिक तौर पर प्रतिवर्ष निकलता है। अगर राज्य प्रशासन चीड़ वनों की अधिकता वाले स्थानों पर कोयला भट्टों को प्रोत्साहन देने की नीति बनाए तो कोयला उत्पादन के साथ-साथ उर्जा व इस पर आधारित उघोगों को स्थापित किया जा सकता है।
भुवन साह अवगत कराते हैं, वन अनुसंधान संस्थान के द्वारा किए गए शोधकार्य से अवगत हुआ है कि पिरूल में वैक्स होता है जो सूखी परत की तरह वनों में लंबे समय तक फैला रहता है। यह वैक्स अब जंगलों में आग भड़काने की जगह परफ्यूम बन कर कस्तूरी की खुशबू देगा। पिरूल के वैक्स से परफ्यूम बनाने की तकनीक इजाद कर ली गई है। पिरूल में वैक्स की मात्रा 1.62 फीसद पाई गई है। रासायनिक प्रक्रिया से इसे गुजार कर यह दर 80 फीसद हो जाती है, जिससे इससे प्राप्त परफ्यूम में कस्तूरी जैसी खुशबू आती है। अभी तक वैश्विक बाजार में उपलब्ध सभी परफ्यूम सिन्थेटिक हैं। पिरूल के वैक्स से बनी परफ्यूम पूरी तरह से प्राकृतिक होगी, जिसके बाजार में आने से परफ्यूम के क्षेत्र में निश्चय ही बदलाव देखा जा सकेगा। वैक्स का प्रयोग विभिन्न कास्मैटिक उत्पादों व जूतों की पालिश बनाने में भी किया जा सकेगा।
निरंतर पिरूल इकट्ठा कर उसका दोहन होने से चीड़ वनों में प्रतिवर्ष बढ़ती दावाग्नि की घटनाओं पर अंकुश लगने के साथ-साथ जो वनस्पति व पेड़-पौंधे पिरूल से दब कर नहीं उग पा रहे थे, उनका गतिरोध खत्म होगा। चीड़ वनों में विभिन्न दूसरी प्रजाति के पेड़-पौधों व वनस्पति की उत्पत्ति निर्वाध देखी जा सकेगी। नए उद्योग धन्धों के खुलने से स्थानीय लोंगों को रोजगार के साधन उपलब्ध होने से पलायन रूकेगा। लोगों की स्थानीय स्तर पर आर्थिक स्थति मजबूत होगी।
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