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दिल्ली एमसीडी चुनाव 2022 पर eGairsain की समीक्षा और उत्तराखंड प्रवासियों की भूमिका

दिल्ली।देश की राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनाव हों अथवा एमसीडी के चुनाव 40 लाख उत्तराखंड मूल के वोटरों की अहम भूमिका रहती है। बीजेपी हो या आम आदमी पार्टी अथवा कांग्रेस तीनों ही पार्टियां सत्ता पर काबिज होने को लेकर जोर-शोर से प्रचार-प्रसार में जुटते आप देख सकते हैं। दिल्ली में होने वाले एमसीडी चुनावों में उत्तराखंड मूल के वोटरों की अहम भूमिका रहने वाली है ,क्योंकि पिछले एमसीडी चुनावों का आंकड़ा बताता है, दिल्ली में उत्तराखंड मूल के 40लाख लोग रह रहे थे, जो दिल्ली एमसीडी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाने में सक्षम थे।दिल्ली में उत्तराखंड मूल के करीब 35 लाख से अधिक मतदाता दिल्ली के पार्षद चुनावों पर अपनी छाप छोड सकते थे। ऐसा क्यों नही हुवा ?इसके पीछे कई सामाजिक और राजनीतिक कारण रहे।इन चुनावों में दिल्ली में कुल 1 करोड़ 47 लाख 86 हज़ार 389 मतदाता थे, जिसमें से करीब 40 लाख मतदाता उत्तराखंड मूल के रहे।, जो सीधे तौर पर करीब 90 से 110 सीटों को प्रभावित कर सकते थे। यही वजह है कि न सिर्फ AAP बल्कि बीजेपी और कांग्रेस भी इन मतदताओं को अपने पक्ष में मतदान करने को लेकर हरसंभव प्रयास करते रही. सियासी पंडितों की मानें तो दिल्ली एमसीडी चुनावों पर तमाम राजनीतिक दल अपनी नजर गड़ाए बैठे थे, कैसे उत्तराखंड के लोगों के बीच फूट डाली जाए। ताकि इनका प्रतिनिधित्व कम किया जा सके। जैसे उत्तराखंड में कोई घटना होती है तो इसको क्षेत्रवाद या जातिवाद्व से जोड़ा जा सके। इसका सीधा नुकसान सबातनियों को होते रहा है।
* नजर गढ़ने गढ़ाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है, फर्क पड़ेगा तो जनता की सोच परखने में लगी पारखी नजरों के खेल का पड़ेगा। कांग्रेस का अस्तित्व कहां है यह बात खुद कांग्रेसी भी समझते हैं। दिल्ली का विकास बरसात ने पता चलता है जब सड़कें झील बन जाती हैं। पैसा पानी निकासी ने नहीं लगता है। वहीं दिल्ली का फ्री वाला गणित बहुत विस्फोटक है।यह देश को वेनुंजवेला जैसा दीवालिया देश बना देगा। कम सोच वाला बोटर यह अभी भी नही समझ पा रहा है।
* दिल्ली की राजनीतिक पार्टियां किरण नेगी पर सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी जघन्य हत्या पर मौन है, दिल्ली की जनता को देश की कम फ्री के मॉल का चस्का रह गया है। उधर उत्तराखंड राज्य वाले सोचते हैं दिल्ली में सब फ्री है, लेकिन यह फ्री का गणित जब उनको समझ में आयेगा तो तब तक उत्तराखंड को भी रोहिंग्या काबू कर चुके होंगे। अंकिता भंडारी जैसे बलात्कार और हत्याएं होती रहेंगी। यह अपराध वाली बात बहुत कुछ दूरगामी बरबादी छोड़कर जायेगी। देखा जाए तो उत्तराखंड फिलहाल दिल्ली से लाख गुना सस्ता है। फ्री का गणित नेता जी को कुर्सी दे सकता है लेकिन बोट देने वाले की बरबादी उसके चौखट पर खड़ी रहती है।
* दिल्ली नजफगढ़ की किरण नेगी के बलात्कार और हत्याकांड पर न्याय के लिए गिनी चुनी उत्तराखंड की संस्थाएं आगे हैं। क्यों न्याय के दरवाजे पर अन्याय हुवा? इसपर दिल्ली का प्रवासी उत्तराखंडी खौफ में है।क्यों अपने देश में पहाड़ियों को चीनी समझा जा रहा है? क्या यह देश दुश्मनों द्वारा नश्लवाद की खाई में धकेला जा रहा है? इसपर न्यायालय को भी सोचना होगा। *उत्तराखंड प्रकोष्ठ ,बीजेपी दिल्ली राज्य के अध्यक्ष हरेंद्र सिंह डोलिया जी से मैने एक बार उत्तराखंड प्रवासियों पर बात की थी, उन्होंने कहा था: : उत्तराखंड मूल के दिल्ली वासियों की पकड़ अस्पतालों, प्रशासनिक अधिकारियों, पुलिस थानों तक भी नही है। उत्तराखंड के प्रवादियों को न्याय मिलना दूर की बात रह गई है।इनमे सरल और सीधे स्वभाव के लोगों का होना अपराधों की नगरी दिल्ली में इनके लिए अभिशाप बन कर रह गया है।अपराध, ज्यादतियां, और उत्पीड़न का शिकार सबसे अधिक इसी उत्तराखंड समुदाय के लोग दिल्ली में हैं।इनकी बड़े स्केल पर सुरक्षा छोटी छोटी सुव्यवस्थित कमेटियां ही कर सकेंगी।इन कमेटियों का सीधा संपर्क दिल्ली में जिला स्तर की कमेटियों से या सीधे जनप्रतिनिधियों से होना जरूरी है।
*यह सिर्फ चुनावों से पहले नही हमेशा एक जैसा होना जरूरी है। दिल्ली में बिहार या पंजाब के लोगों का आपस में सही तालमेल इनको अपराधियों से बचाता रहा है और समस्या के समय अपने जनमानस के साथ खड़ा मिलता है। उत्तराखंड मूल के लोगों के बीच इसका अभाव है। उत्तराखंड मूल के लोगों को जनसंख्या के हिसाब से दिल्ली में चुनावों में टिकट नहीं मिलते हैं।टिकट राजनीतिक पार्टियां धनी लोगों को दे देती हैं। इस प्रकार यहां पर राष्ट्रवाद की सोच के बाद या प्रगतिशील सोच के बाद भी प्रजातंत्र का मजाक देखने को मिलता है।
* आगामी उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के लिए भी दिल्ली में पहाड़ियों की एकता हर पार्टी को महत्वपूर्ण संकेत दे सकती है। दिल्ली में उत्तराखंड मूल के भारी तादाद में मतदाता के होने के चलते बीजेपी और कांग्रेस का उत्तराखंड मूल के प्रत्याशियों पर फोकस रहता है. पिछले दिल्ली के विधान सभा चुनावों में यही कारण रहा कि, दिल्ली में बीजेपी ने दो तो कांग्रेस ने उत्तराखंड मूल के चार प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था. ताकि वे उत्तराखंडी वोटर को ज्यादा से ज्यादा अपने पाले में कर सकें. आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड प्रवासियों को सिर्फ बोट लेने के लिए इस्तेमाल किया था।उत्तराखंड के तमाम बड़े नेता स्टार प्रचारक बनाए गए थे। उत्तराखंड के लोग जनसंख्या के अनुपात से टिकटों,की बंदरबांट को भेदभावपूर्ण कोण से देख रहे थे। पिछले दिल्ली विधान सभा चुनावों में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक जानकार भगीरथ शर्मा जी के अनुसार दिल्ली में उत्तराखंड मूल के करीब 30 लाख से अधिक लोग रहते हैं, जिसमें से करीब 23 लाख से अधिक मतदाता हैं, वैसे यह आंकड़ा गलत है। इसका कोई सर्वेक्षण आधार नही था । यह सिर्फ राजनीतिक समीकरण को गुमराह करने वाला आंकड़ा था ।सही सर्वेक्षण 40 लाख उत्तराखंड मूल की जनसंख्या का है, जिसमे 35 लाख बोट देने वाले हैं।यह सर्वेक्षण सोशल सर्वे करने वाले कई एनजीओ का है। यह सर्वे दिल्ली की सीटों को सीधे तौर पर प्रभावित करती है. दिल्ली में होने वाले एमसीडी चुनावों में उत्तराखंड मूल के मतदाताओं का बहुत महत्व है.बीजेपी,कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए यह काफी प्रभाव डालने वाला आंकड़ा है।
* नए परिसीमन क्या परिणाम देंगे और इसमें उत्तराखंड प्रवासियों की भूमिका क्या रहेगी, यह उनकी एकता पर निर्भर होना है।एमसीडी चुनाव 2022 से पहले,केंद्र सरकार ने दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के वार्डों के परिसीमन को लेकर सौंपी गई अंतिम रिपोर्ट को मंजूरी दे दी थी।केंद्र की तरफ से अंतिम रिपोर्ट को सत्यापित करने की अधिसूचना जारी कर दी गई है। परिसीमन समिति ने सोमवार को केंद्र को एमसीडी के वार्डों के परिसीमन पर अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी थी। गृह मंत्रालय की ओर से जारी गजट नोटिफिकेशन के साथ ही परिसीमन की कवायद पूरी हो गई है। इसके साथ ही, एमसीडी के चुनावों का रास्ता साफ हो गया था। उसके बाद संभावित तिथियों को घोषणाएं भी हो चुकी हैं। केंद्र सरकार राज्य निर्वाचन आयोग को चुनाव प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दे चुकी है। परिसीमन के बाद दिल्ली में नगर निगम वार्डों की संख्या 250 हो गई है। इनमें 42 सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कर दी गई हैं।
ध्यान रहे कि सभी तीन नगर निगमों सहित एमसीडी में कुल सीटों की संख्या पहले 272 थी। परिसीमन के बाद 22 सीटें कम होने से इनकी संख्या अब 250 रह गई। यह परिसीमन 2011 की जनगणना के आधार पर किया गया है। इससे पहले केंद्र ने तीनों नगर निगमों के एकीकरण का फैसला किया था। अब परिसीमन के बाद पहली बार नगर निगम के चुनाव होंगे।
नगर निगम चुनाव को लेकर बीजेपी और आम आदमी पार्टी के मध्य बाक युद्ध का लंबा दौर चला। आप और कांग्रेस, दोनों ने बीजेपी पर चुनाव टालने का आरोप लगाया था। अब जब परिसीमन का काम पूरा होकर अधिसूचना जारी हो चुकी है,चुनावों का ऐलान भी हो चुका है, इसके बाद उत्तराखंड के प्रवासी कैसी भूमिका निभाते हैं , यह समय ही बता सकता है।
लेखक योगी मदन मोहन ढौंडियाल।

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