विदेश में रहकर भी उत्तराखंड की संस्कृति से जुड़े रहते हैं धीरेंद्र सिंह रावत
कौथिग (मेला)
दिल्ली। यह तस्वीर पौड़ी गढ़वाल में हमारे इलाके रिखणीखाल ब्लॉक, पट्टी पैनो में ढौंटियाल महादेव (14 गति) के मेले की हैं. आज ही मेले का दिन हैं लेकिन वह भी कोरोना की भेंट चढ़ गया. आज सोशल मीडिया का जमाना हैं, कुछ लोगो ने इंटरनेट पर अलग-अलग माध्यमों से पिछले साल आयोजित मेले की बहुत सुन्दर सुन्दर तस्बीरे भेजी हैं, जो कि आज के मेले की याद दिलाती हैं.
उत्तराखंड मूल के रहने वाले धीरेंद्र सिंह रावत इस समय कुवैत में रहते हुए भी अपनी संस्कृति के प्रति उनका प्यार उनका लगाओ देखने को मिल रहा है उन्होंने अमर संदेश से संपर्क कर या आर्टिकल लिख कर भेजा और कहा कि इसे प्रकाशित कर हमारी लोक संस्कृति ओर मेले जो आज लुप्त होते जा रहे हैं उनकी जानकारी हमारी आने वाले पीडी व सभी लोगो तक पहुचे।
उन्होंने कहा इस महामारी के कारण 2 वर्षों से कोई बड़ा मेलो का आयोजन भी नही हो पाया। उन्होंने कहा सरकार की हम सबको सरकार की गाइडलाइन पालन करते हुये इस महामारी को हराना है। ज्ञात हो धीरेंद्र सिंह रावत विदेश में रहते हुए भी अपनी उत्तराखंड की मूल संस्कृति से हमेशा जुड़े रहते हैं ।वह हमेशा कुवैत में भी सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते रहते थे। पिछले 1 वर्षों से एक कोरोना काल के कारण वहां भी कोई आयोजन नहीं कर पाए। उन्होंने कहा अपने कुल देवी देवताओं से प्रार्थना करूंगा कि शीघ्र इस महामारी से हम सबको मुक्ति मिले, और हम सब का जीवन पहले जैसा चलना शुरू हो जाए उन्होंने कहा कोरोना महामारी की दूसरी लहर के कारण कई लोगों का रोजगार चले गया है कई लोगों के आगे जीवन यापन करना भी बहुत कठिन हो गया उन्होंने समाज के सक्षम लोगों से अपील की कि इस विकट परिस्थिति में आगे आकर जरूरतमंदों की मदद करें ।उन्होंने कहा लोक सास्कृतिक से जुडे कलाकारों को रोजगार की दिक्कत भी आ रही है, कई लोग बहुत परेशान हैं हम सब लोगों को मिलकर उन लोगों की मदद के लिए भी आगे आना चाहिए।
सदियों से चले आ रहे पारम्परिक कौथिग हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, हमारी संस्कृति को दर्शाता हैं. इस परंपरा को पीड़ी दर पीढ़ी जिन्दा रखना हम सभी का कर्तब्य भी हैं. अब मेलो में पुराने ज़माने जैसी भीड़ बिलकुल भी नजर नहीं आती. जो भी लोग आज भी मेलो में जाते हैं, वे लोग बहुत ही जागरूक लोग होते हैं. अपनी सांस्कृतिक विरासत को बनाये रखने और उसे पीड़ी दर पीड़ी अपनी परंपरा को जिन्दा रखने का काम कर रहे हैं.
जहां तक मेले की बात हैं, किसी ज़माने में हमने भी खुद देखा हैं, हर किसी गांव से लोग एक साथ मिलकर ढोल, दमाऊ, मसूबाज, गाजे बाजो के साथ में मेले में शामिल होने आते थे. मेलो में महिलाओ और पुरूषो के बड़ी-बड़ी टोलिया थडिया, झुमेलो, बाजूबंद, खुदेड़, चौफुला, चौमास, झौड़ा, चाँचरी, और अनेको पहाड़ी बिधाओ के गीतों का आयोजन भी करते थे. तमाम जनता उनके गायन और नृत्य का आनंद लेती थी. यही चीज़े तो हैं जो हमारी संस्कृति को दर्शाती हैं लेकिन दुर्भाग्य से आज धीरे धीरे सब कुछ गायब होने की कगार पर हैं. अब मेलो में लोगो की रूचि ना के बराबर रह गयी हैं.
जिस समाज की पारम्परिक सांस्कृतिक विरासत नहीं होती, अपनी खुद की संस्कृति नहीं होती, उस समाज के लोग निर्जीव प्राणी की तरह जीवन जीते हैं. आज पूरी दुनिया की सरकारे अपनी-अपनी संस्कृति को जीवित रखने के लिए बहुत प्रयास कर रही हैं. हर किसी सरकार के पास एक संस्कृति एवं कला बिभाग भी होता हैं, जो इसी काम में लगा रहता हैं. हमारे उत्तराखंड सरकार के पास भी एक अलग से संस्कृति एवं कला बिभाग हैं.
संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये ‘कल्चर’ शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना।
संस्कृति का शब्दार्थ है – उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।
अंत में आप सभी लोगो से यही कहना चाहूंगा कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस जगह रहते हो, आप जहा भी रहो, आप सभी लोग अपने-अपने स्तर से जो भी संभव हो सक, अपने दैनिक कार्यो/कर्तब्यो के साथ-साथ थोड़ा बहुत अपनी संस्कृति के लिए भी काम करते रहिएगा।
आप सभी लोगो का विनम्र धन्यवाद्