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नई संसद के निर्माण के बाद पहली पुस्तक ‘भारतीय संसद – संविधान सदन से संसद भवन’

भारतीय संसद – संविधान सदन से संसद भवन- नई संसद के निर्माण के बाद पहली पुस्तक है। लेक्सिसनेक्सिस द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक भारतीय संसद और भारतीय लोकतन्त्र से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित निबंधों का संक्षिप्त ज्ञानकोश है। पुस्तक में वैदिक काल से शुरू होकर भारत की महान गणतंत्र विरासत; भारत के संविधान के निर्माण की संक्षिप्त भूमिका, निर्माण और संविधान का अनुपालन; संसद की शक्तियां और कार्य; 1925 में रेल बजट की शुरुआत और 2017 में रेल बजट का वार्षिक बजट में विलय; विधायी और बजटीय प्रक्रियाएं; जवाबदेही के विविध संसदीय तरीक़े; संसदीय समितियां और उनका प्रभाव; विधायिका-न्यायपालिका इंटरफेस; लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और विपक्ष की भूमिका जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर सारगर्भित लेख हैं जो शायद ही अन्यत्र किसी एक पुस्तक में मिलें।

 

नई संसद के निर्माण के बाद पहली पुस्तक 'भारतीय संसद - संविधान सदन से संसद भवन' ---------------------------------------- पुस्तक समीक्षा- डाॅ. हरेन्द्र सिंह
नई संसद के निर्माण के बाद पहली पुस्तक ‘भारतीय संसद – संविधान सदन से संसद भवन’
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पुस्तक समीक्षा- डाॅ. हरेन्द्र सिंह

श्री सिंह ने भारतीय संसद के कामकाज, इसके पदाधिकारियों के कर्तव्यों, अन्य संवैधानिक निकायों और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के साथ इसके संबंध और हमारे लोकतंत्र की इमारत को मजबूत बनाने में उनकी भूमिका की बारीकियों का सुन्दर निरूपण किया है।

लोकतंत्र और खासकर संसद पर लिखी गई पुस्तक में संवैधानिक न्यायशास्त्र और राजनीतिक दर्शन को स्पष्ट किया जाना चाहिए व समकालीन तथा ऐतिहासिक घटनाक्रमों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इस किताब की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह न केवल संवैधानिक सिद्धांतों, संसदीय प्रथाओं का एक बेहतरीन मिश्रण है, बल्कि यह हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की खूबियों और खामियों पर प्रकाश डालती है।

लेखक ने अपने सुस्पष्ट, अत्यधिक पठनीय ढंग से संविधानिक इतिहास, प्रक्रिया, मिसाल, पद्धतियों और यहां तक ​​कि वास्तविक घटनाओं का रोचक वर्णन किया है। लगभग चार दशकों से संसद के कामकाज को करीब से देखने वाले लेखक ने संसदीय लोकाचार में सामान्य गिरावट पर गहरी चिंता व्यक्त की है और संसद को जवाबदेही की सर्वोच्च संस्था बनाने के अभिनव उपाय सुझाए हैं।

लेखक के शव्दो में “संसद केवल ईंटों और गारे से बनी संरचना नहीं है, बल्कि राष्ट्र की सर्वोच्च प्रतिनिधि, विचार-विमर्श करने वाली और विधायी संस्था है।” संसद जवाबदेही के मजबूत टूलकिट से सुसज्जित हो, संसद की नियमित रूप से बैठकें हों और संसद में संरचित चर्चाएँ हों, तभी व्यवस्थापिका कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित कर सकती है । लेखक का मानना है कि अगर संसद में संरचित चर्चाएँ हों, साल में कम से कम सौ दिन नियमित बैठकें हों और पीएम के प्रश्नकाल की व्यवस्था हो क्योंकि एक मजबूत संसद ही कार्य पालिका की जवाबदेही और सुशासन सुनिश्चित कर सकती है।

यह संवैधानिक और संसदीय मामलों पर लिखी गई यह एक आधिकारिक और बहुप्रतीक्षित स्वागत योग्य पुस्तक है। डॉ. शशि के शब्दों में, “विद्वानों के साथ-साथ पाठकों के लिए भी सुलभ, भारतीय संसद श्री सिंह की इस जटिल संस्था की सूक्ष्म समझ को एक संक्षिप्त और सटीक लेखन शैली के साथ जोड़ती है, जिसमें बहुत कम बातें अनकही रह जाती हैं और नहीं पुस्तक में अनावश्यक पृष्ठ बहुलता है”। दिल्ली विश्वविद्यालय के डीन ऑफ कॉलेजेज, प्रो. बलराम पाणि बिल्कुल सही कहते हैं- “एक दूसरे से जुड़े विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला, सूचना का खजाना, धारदार विश्लेषण और सुचिंतित सुझावों से युक्त यह एक पठनीय पुस्तक है।” मेरे विचार से यह न केवल छात्रों, शिक्षाविदों, पत्रकारों और विधायकों- वर्तमान और भावी- बल्कि संसदीय लोकतंत्र के सभी प्रेमियों के लिए भी एक लाभकारी पुस्तक है, जो अपनी तर्क-कुशलता को प्रखर बनाना चाहते हैं और भारतीय लोकतन्त्र के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाना चाहते

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