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रंगमंच पटल पर पहली बार मंचित गढ़वाली नाटक ‘रानी कर्णावती’ की समीक्षा बैठक सम्पन्न

सी एम पपनैं.
नई दिल्ली। दि हाई हिलर्स ग्रुप द्वारा एक दिसंबर की सांय आईटीओ स्थित बाल भवन के मेखला झा रंग स्थल में पहली बार नाटक ‘रानी कर्णावती’ का मंचन किया गया था। जिसकी समीक्षा बैठक सात दिसंबर की सायं गढ़वाल भवन मे मंचासीन वरिष्ठ रंगकर्मी व नाट्य समीक्षक चंद्रमोहन पपनैं  की अध्यक्षता तथा समाज सेवी नरेंद्र सिंह नेगी, वरिष्ठ पत्रकार सुनील नेगी तथा चारु तिवारी, वरिष्ठ रंगकर्मी व नाटककार सुशीला रावत तथा रंगमंच निर्देशक हरि सेमवाल के सानिध्य मे सम्पन्न हुई।
         ‘रानी कर्णावती’ गढ़वाल मे ‘नकट्टी रानी’ नाम से भी प्रख्यात है, जो पवार वंश के राजा महिपत शाह की पत्नी थी। पति की मृत्यु तथा पवार शासन के वीर सेनापति माधोसिंह की मृत्यु सन 1628 मे होने के पश्चात रानी कर्णावती ने शासन की बागडोर संभाली थी। रानी पुत्र पृथ्वी शाह तब मात्र सात वर्ष की उम्र के थे। रानी कर्णावती ने सन 1640 मे मुगल सम्राट शाहजहां के तीस हजार सैनिकों को अपने नायाब बुद्धि कौशल से चंडी घाटी वर्तमान लक्ष्मण झूला मे शिकस्त दे, उनके नाक काट, वापस लौटा, मुगलों को चुनोती दे, ख्याति अर्जित की थी। उक्त घटना ऐतिहासिक तौर पर नारी शक्ति के रूप मे गढ़वाल के जनजीवन की यादो मे आज भी तरो ताजा है।
इस ऐतिहासिक घटना पर पहलीबार नाटककार, रंगकर्मी व गढ़वाली फिल्म निर्देशिका सुशीला रावत द्वारा आलेखित नाटक ‘रानी कर्णावती’ का मंचन हरि सेमवाल के निर्देशन मे किया गया था।
       उक्त समीक्षा बैठक में आयोजक संस्था पदाधिकारियों व संस्था से जुड़े कलाकारों के साथ-साथ उत्तराखण्ड रंगमंच से जुड़े प्रबुद्ध पत्रकारो व साहित्यकारो की बड़ी संख्या मे उपस्थिति रही।
             आयोजक संस्था निदेशक खुशहाल सिंह बिष्ट द्वारा सभी प्रबुद्ध जनो का समीक्षा बैठक मे आने हेतु आभार व्यक्त किया गया। पहली बार ऐतिहासिक नाटक ‘रानी कर्णावती’ के मंचन पर प्रबुद्ध जनो से समीक्षा के तहत विचार व सुझाव इस आशय पर आमंत्रित किए गए, जिन पर अध्ययन-मनन कर भविष्य मे उक्त नाटक को और अधिक सशक्त बना कर उत्तराखंडी प्रवासी जनमानस के मध्य दृढ़ता के साथ मंचित कर उत्तराखंड के रंगमंच को समृद्ध  किया जा सके।
          समीक्षा बैठक मे विचार व्यक्त करने वाले प्रमुख प्रबुद्ध जनो मे प्रदीप वेदवाल, राजेश नोगाई, पी एस चौहान, सुनील नेगी, डॉ सतीश कालेश्वरी, लक्ष्मी रावत, चारु तिवारी, मंजू बहुगुणा, जगदीश तिवारी, बृजमोहन वेदवाल, बृजमोहन उप्रेती (बिट्टू भाई), सुमन खंडूरी, कैलास रावत, कुलदीप असवाल, सौरभ पोखरियाल, धर्मवीर, जीतू बिष्ट, गिरधारी रावत, कुसुम बिष्ट इत्यादि ने प्रखर होकर नाटक की कमियों व खूबियों पर विचार व सुझाव दिए। रंगपटल की समझ व अनुभव के आधार पर वक्ताओ के विचार पृथक व सुझाव लगभग एक से थे, उत्तराखंड के रंगमंच, साहित्य व लोक संस्कृति की समृद्धि हेतु।
              वक्ताओ द्वारा व्यक्त किया गया, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मे लिखा गया नाटक महिला प्रधान था। उत्तराखंडी बोली-भाषा और साहित्य की स्मृद्धि हेतु नाटक का मंचन प्रेरणादायी सिद्ध हुआ। नया नाटक मंचित करना बहुत बड़ा कार्य है। ऐतिहासिक और भाषाई नाटक करना उससे भी अधिक जटिल है। पहलीबार रंगमंच पटल पर रानी कर्णावती के शौर्य, बुद्धिमता, हिम्मत को श्रोताओं के मध्य उठाना बहुत बड़ी बात रही। इतिहास के संदर्भो व पन्नो को उठाना महत्वपूर्ण कोशिश है। नाटक मे पिरोयी गई भाषाओं को साहित्य की खूबी का बहुत बड़ा संगम कहा गया। जिसे लेखिका के नाटकीय अनुभव से जोडा गया। नाटक के संवादों मे थोड़ा परिवर्तन कर उसे और रोचक बनाए जाने पर बल दिया गया।
         व्यक्त किया गया, चेतना जगाने के लिए ऐतिहासिक बोध का होना जरूरी है। रंगमंच पटल पर पहला नाटक 1917 मे ‘महाराजा हरीशचंद्र’ नाम से मंचित किया गया, जो यात्रा ‘रानी कर्णावती’ नाटक तक पहुच चुकी है।
         उत्तराखंड के दो सौ वर्षो के इतिहास को महत्वपूर्ण बता, व्यक्त किया गया, इतिहास के संदर्भ को ऐतिहासिक तौर पर लेना चाहिए। कुमाऊं की जिया रानी जो तैमूर के खिलाफ वीरता से लड़ी तथा गढ़वाल की रानी कर्णावती जिसने मुगलों को हताश किया, ऐसी वीरांगनाओ को इतिहास में जगह नही दी गई। कत्यूरी व पुंडीर शासक कुमाऊँ व गढ़वाल की नामचीन हस्तियां रही, जिन्हे भुला दिया गया।
                मंचित ‘रानी कर्णावती’ नाटक मे कई संदर्भो को शामिल कर सशक्त बनाने की पहल पर विचार रखे गए। कहा गया, इतिहास के काल खंडों का खतरा है, जिस पर सावधानी बरतनी पड़ती है। कर्णावती का जिक्र कही दृष्टिगत होता है तो, उत्तराखंडियों के लिए सौभाग्य की बात है। व्यक्त किया गया, लोकगाथाए गढ़ी जाती है, इतिहास गढ़ा नही जाता। तीस हजार की नाक काटना अतिश्योक्ति है। नाटक मे पिरोई गई चीजो को जस्टिफाई करना जरूरी होता है। इतिहास और संस्कृति को बोध रूप मे जानना जरूरी है। उत्तराखंड के नायकों को इतिहास मे जगह नही मिली, जो इतिहासकारो की कारगुजारियों को दर्शाता है। संस्कृतियो को एक दूसरे से संवाद करना जरूरी है। लोक नाट्य की बहुत विधाऐ हैं।
कर्णावती चेतना का आधार थी।
         व्यक्त किया गया, ऐतिहासिक नाटक लिखना जितना जोखिम भरा है, उतना ही कुमांऊनी व गढ़वाली बोली भाषा मे उसे मंचित करना भी। बिना शोध कार्य किए नाटक मंचित करना भी जोखिम भरा है। पात्रो का चयन बोली-भाषा के ज्ञान पर तथा शोधकार्य करने के बाद नाटक मंचित करने हेतु वक्ताओ द्वारा बेबाक राय रखी गई। नायिका प्रधान नाटक का लेखन व पिरोये गए संवाद तथा प्रस्तुतिकरण को सराहा गया। कुछ पात्रो के अभिनय को बेहतर आंका गया। निरंतर प्रति वर्ष दो नाटक बिना संसाधनों के करने पर ग्रुप की सराहना की गई।
वक्ताओ ने व्यक्त किया, कर्णावती का व्यक्तित्व काफी मजबूत रहा होगा, परन्तु नाटक मे वह नही दिखा। पात्र कमजोर था, उसमे वीरांगना की फीलिंग नही थी। पात्रो का उपयोग व मंच पर उनका मूभ ठीक नही था। व्यक्त किया गया, रिहर्शल मे मेहनत करने पर नाटक सुदृढ़ बन पड़ेगा। लम्बे संवादों पर सवाल खड़े किए गए। कहा गया, श्रंगार न हो, परिधान न हो, परन्तु नाटकीय तत्वो का होना जरूरी है, जिसका अभाव था। नाक काटने वाले दृश्य, दृश्य बदलाव व परिधान बदलने मे समय जाया होना तथा लड़ाई के दृश्य को प्रभावी बनाने पर जोर दिया गया।
             निर्देशन को बेहतरीन बताया गया। सिमित संसाधनों के बावजूद नाटक को सफल करार दिया गया। नाटक की खूबी मे गीत गायन व हुड़का वादन तथा गीत संगीत को नाटक का मजबूत पक्ष बताया गया।
          नाटक लेखिका सुशीला रावत ने अपने उदगारों मे व्यक्त किया, हाई हिलर्स ग्रुप मे शामिल होने के पश्चात ही गढ़वाली बोली सीखी। इतिहासकारो ने हमारी वीरांगनाओं को नजरअंदाज कर अन्याय किया। आज के जागरूक समाज को उत्तराखंड की वीरांगनाओ को सम्मान देना चाहिए।
                      नाटक निर्देशक हरि सेमवाल ने व्यक्त किया, प्रोडक्शन मे लचक रही, जिसे स्वीकार करता हूं। रंगमंच ललित कलाओं की विधाओ मे सबसे ज्यादा कठिन है। प्रत्येक कलाकार की बड़े रोल की चाहत अच्छे लक्षण की ओर इंगित करता है, परन्तु बड़ा रोल नही तो भाग जाना रंगमंच की समृद्धि मे अड़चन पैदा करता है। उन्होंने कहा, गढ़वाली बोली-भाषा के अच्छे कलाकारों का अभाव गढ़वाली रंगमंच को पीछे धकेल रहा है। इसी कारण मंचित नाटक के कई महत्वपूर्ण दृश्य मजबूरन काटने पड़े, जो ठीक नही रहा। बैक स्टेज के कलाकारों की महत्ता है, वही भावी सफल निर्देशक बनता है। गढ़वाली रंगमंच को आगे बढाने व ख्याति दिलवाने हेतु युवा पीढ़ी को आगे आना होगा। दर्शक है तो नाटककार है।
               दिल्ली प्रवास मे गढ़वाली नाटक मंचित करने वाली प्रख्यात संस्था ‘द हाई हिलर्स ग्रुप’ ने अपने स्थापना वर्ष 1983 से निरंतर अभावो को झेलते हुए, अपने प्रशंसको के बल गढ़वाली रंगमंच व बोली-भाषा को समृद्ध करने के लिए अब तक इन छत्तीस वर्षो के अन्तराल मे सु-विख्यात गढ़वाली नाटककारों द्वारा आलेखित नाटकों मे अर्द्धग्रामेश्वर, चमत्कार, कैकु ब्यौ कैकु ख्यो, पल्टनेर चंद्रसिंह, बांजी गौड़ी, लिंडरिया छोरा, पैसा न ध्याला गुमान सिंह रौतेला, जै भारत जय उत्तराखंड, खांडू लापता, समलौण, रुकमा रूमैलो, जैसिंह काका, अदालत, फुंदया पदान अर चखुली प्रधान इत्यादि नामक सफल नाटक मंचित कर इतिहास रचा है, जो प्रशंसनीय व प्रभावशाली है।
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