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गढ़वाली रंगमंच- सु-विख्यात नाटक ‘पैसा न ध्यल्ला, गुमान सिंह रौतेला’ का सफल मंचन

सी एम पपनैं
नई दिल्ली। गढ़वाली बोली-भाषा के प्रसिद्ध नाटककार स्व.राजेंद्र धस्माना की स्मृति मे हरि सेमवाल निर्देशित नाटक ‘पैसा न ध्यल्ला, गुमान सिंह रौतेला’ का 12 मई की सांय मंडी हाउस स्थित खचाखच भरे एलटीजी सभागार मे उत्कृष्ट मंचन किया गया।मराठी नाटककार महेश ऐलकुंचवार की कृति ‘बाडा चिरेवंदी’ का राजेंद्र धस्माना द्वारा रूपांतरित इस गढ़वाली नाटक का उत्तराखंड की दिल्ली प्रवास मे प्रख्यात सांस्कृतिक संस्था ‘दि हाई हिलर्स ग्रुप’ द्वारा छठी बार मंचित करना नाटक को पूर्व मे मिली प्रसिद्धि व सफलता को बयां करता है। उत्तराखंड के पहाडी जनजीवन की पृष्ठभूमि मे रुपान्तरित गढ़वाली बोली-भाषा का यह नाटक वर्तमान मे पहाडी जनमानस के मध्य आम हो चली उस बदलाव की वेदना का बखान करता नजर आता है, जो पहाडी लोगो के सहज व सरल आचार-विचारो व स्मृद्ध संस्कृति परख व्यवहार का ह्रास कर उसे शहरी चकाचौध की ओर अग्रसरित कर कु-प्रभावित कर रहा है। ग्रामीण परिवारों के मध्य पनप रही बेबुनियाद स्वार्थ परक धारणाए, लोभ-लालच, झुंझलाहट, कुढ़न व अन्य अनेकों प्रकार की विकृत सोच ने लोगो के सहज व सरल जीवन को असहजता की ओर बढती मुश्किलो तथा पहाड़ के युवाओं मे शराब, टीवी व सिनेमा के बढ़ते दुष्प्रभाव के परिणामो के साथ-साथ अभावो का जीवन जी, पढ़-लिख कुछ कर गुजरने व जीवन को सफल बनाने की चाह रखने वाली युवती ‘प्रभा’ की सोच को नाटककार ने बेहतरीन ढंग से नाटक मे पिरो कर न सिर्फ पहाड़ी समाज को बल्कि अन्य समाज के लोगो को भी नाटक के माध्यम से बेहतरीन संदेश देने का प्रयास किया है। उत्तराखंड के मूल पहाड़ी परिवारों के मध्य बोली जाने वाली ठेठ गढ़वाली बोली-भाषा व जनमानस की गहन सोच व विचार धारा को नाटककार ने पिरोये गए सटीक संवादों की सूझबूझ से नाटक की पृष्ठभूमि को सशक्त व प्रभावशाली बनाने में कोर कसर नही छोड़ी है। नाटककार राजेंद्र धस्माना के नाटक ‘पैसा न ध्यल्ला, गुमान सिंह रौतेला’ की सफलता व प्रसिद्धि का यह मुख्य कारण आंका जा सकता है। नाटक के सभी पात्रों का अभिनय, व्यक्त संवाद, परिधान, मंच पर बनाया गया सैट, प्रकाश व्यवस्था इत्यादि सब नाटक के अनुकूल था। निर्देशन के बल कुछ दृश्यों को प्रभावशाली बनाने की गुंजाइश थी, जिसमे प्रेम प्रसंग, गांव के लोगो की गुप्त गू व शराब पीकर घर आए लड़के की बदहाली को विशेष अंदाज मे प्रस्तुत किया जा सकता था।
माँ की भूमिका मे कुसुम बिष्ट, भाभी-मंजू बहुगुणा, उमेद-कुलदीप असवाल, रणजू-महिमा बिष्ट, केदार- सौरव पोखरियाल, रुचि- गीता गुसाई नेगी तथा रघुवीर, गोबिंद, मास्टर व नोंल्या की भूमिका मे क्रमश- हरेंद्र रावत, गिरधारी रावत, गौरी रावत व सुशील भद्री ने व्यक्त संवादो व अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया।केसर व प्रभा की भूमिका मे क्रमशः बृजमोहन वेदवाल व कुसुम चौहान ने अति प्रभावशाली संवादों व बेहतरीन अभिनय के बल न सिर्फ खचाखच भरे सभागार मे बैठै दर्शकों की देर तक तालियां बटोरी, बल्कि श्रोताओं के मन मष्तिष्क मे अपने अभिनय की अमिट छाप भी छोड़ी, हरि सेमवाल के सशक्त प्रभावशाली निर्देशन के बल। मंचित नाटक के सभी नाटकीय पहलुओं पर गौर कर, आंचलिक गढ़वाली बोली के इस नाटक को सफल श्रेणी मे आंका जा सकता है। दि हाई हिलर्स ग्रुप’ के मुखिया खुशहाल सिंह बिष्ट ने पात्र परिचय से पूर्व संस्था के 18 सितम्बर 1981 स्थापना वर्ष से अब तक संस्था के मंचित नाटकों पर मिली सफलता, संस्था के उद्देश्यो व अभावो को झेल निरंतर चलायमान संस्था के सदस्यों व प्रबुद्ध प्रशंकों के आर्थिक सहयोग के बल मंचित किए जा रहे कार्यक्रमो के बावत अवगत कराया। गढ़वाल हितैषिणी सभा द्वारा नाटक की तालीम हेतु मुहैया कराए गए स्थान व दी गई अन्य मदद पर गढ़वाल सभा के पदाधिकारियों का संस्था की ओर से तहे दिल आभार व्यक्त किया। संस्था के प्रमुख सहयोगियों सुशीला रावत, सुरेश नोटियाल, शशि बडोला, मंचित नाटक के निर्देशक हरि सेमवाल इत्यादि को मंच पर आमंत्रित कर, संस्था के प्रति उनके समर्पण, त्याग व योगदान के बावत संस्था के मुखिया ने अवगत कराया। खचाखच भरे सभागार मे बैठे श्रोताओं को संस्था के मुखिया व ख्याति प्राप्त रंगकर्मी खुशाल सिंह बिष्ट ने वेदना प्रकट कर अवगत कराया, उत्तराखंड की प्रांतीय सरकार का प्रवासी संस्थाओं द्वारा प्रवास मे निरंतर किए जा रहे उत्तराखंड की लोक संस्कृति, लोक गाथाओं, लोक कला व बोली-भाषा के उत्थान हेतु कोई भी नीति व कार्य योजना का आज तक न बनना पहाडी प्रवासी कलाकारों व प्रवासी सांस्कृतिक संस्थाओं के पलायन की पीड़ा को बढ़ाता है, जो असहनीय है।

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