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उत्तराखंड की ऐतिहासिक धरोहरों पर मंडराता अस्तित्व का खतरा

सी एम पपनैं

नई दिल्ली। मध्य हिमालय उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे अनेक उद्यान व बगान ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सु-विख्यात रहे हैं। अवलोकन कर ज्ञात होता है, उक्त उद्यान व बगानो की प्रायोगिक शुरुआत, अनुभव के आधार पर, ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा की गई थी।स्थापित उद्यान व बगानों ने, मध्य हिमालय उत्तराखंड की प्राकृतिक छटा को ही नही निखारा, उत्पादित फल, चाय इत्यादि के उत्पादन से ब्रिटिश हुक्मरानों ने अपनी इच्छित स्वाद पूर्ति के साथ-साथ, भरपूर धन लाभ अर्जित कर, ब्रिटिश साम्राज्य को आर्थिक समृद्धि भी प्रदान की थी।

बेरीनाग मे 300 एकड़ मे पहली चाय नर्सरी 1835 मे तथा देहरादून की बात करे तो, 1844 कौलागढ़ मे 400 एकड़ मे चाय बगान स्थापित किया गया था। असम के बाद वैश्विक फलक पर देहरादून के 1700 एकड़ मे उत्पादित चाय विख्यात थी। इनमे तीन लाख पौंड चाय उत्पादित होती थी। प्राप्त आंकड़ो के मुताबिक सन 1880 तक 10,937 एकड़ क्षेत्र मे कुल 63 चाय बागान, ब्रिटिश हुक्मरान मध्य हिमालय उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र मे स्थापित कर चुके थे। जिसमे 27 प्रमुख चाय बागान थे। प्राप्त आंकडो के मुताबिक, सन 1897 मे मध्य हिमालय उत्तराखंड का चाय उत्पादन आंकड़ा 17,10,000 पाऊंड था।

शीतोष्ण फलों के प्रथम उद्यान व फल शोध केंद्र की स्थापना ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा, 235 हैक्टेयर भूमि मे, सन 1932, चौबटिया, रानीखेत मे स्थापित किया गया था।

देश को मिली आजादी के पश्चात, स्थापित इन उद्यान व बगानों से देश-प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूत आधार व स्थानीय स्तर पर लोगों को रोजगार के साथ ही, पारिस्थतिकी के संतुलन संरक्षण, शुद्ध पर्यावरण तथा जन स्वास्थ्य की दृष्टि से उद्यान व बगानों का महत्व, सर्वोपरि स्तर पर आंका गया।

उत्तराखंड की समृद्धि मे उद्यान व बगानों का महत्व जान, उसके संवर्धन हेतु, 1953 मे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोबिंद बल्लभ पंत द्वारा रानीखेत, मालरोड मे, उद्योग विभाग निदेशालय, फल उपयोग विभाग, उत्तर प्रदेश के मुख्यालय की स्थापना कर, सत्ता के शीर्ष मे पहाड़ी जनमानस के बीच से ही, मुख्यमंत्री होने का अहसास कराया था। इसी क्रम मे, स्थापित प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र श्रीनगर (गढ़वाल) मे तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा द्वारा, 1975 मे भू-रसायन एवं मशरूम अनुभागों की स्थापना, इसी अहसास के तहत की गई थी।

उत्तराखंड पर्वतीय क्षेत्र के, कृषि विकास की सोच के तहत, सन 1974 मे, फल शोध केंद्र चौबटिया, रानीखेत के अधीन, मटेला, ज्योलीकोट, पिथौरागढ़, श्रीनगर, कोटद्वार, कोटियाल सैण, सिमलासू, डुंडा, ढकरानी, चकरौता तथा रुद्रपुर मे 39 अनुसंधान केंद्र, शीतोष्ण व समशीतोष्ण फलों, सब्जियों, मसालों फसलों पर काश्तकारों की समस्याओं के निदान हेतु, शोधकार्य केंद्र स्थापित किए गए। 1988 मे उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा रानीखेत मे उद्यान निदेशालय भवन की मंजूरी दी गई थी, जो 1992 मे बनकर तैयार हो गया था।

सन 1990 मे निदेशालय का नाम बदलकर उद्यान एवं खाद्य प्रशंस्करण विभाग, उत्तर प्रदेश कर दिया गया था। जिसके विभिन्न अनुभागों का संचालन सु-विख्यात विज्ञानिकों द्वारा किया गया। दर्जनों शोधार्थियों ने इस शोध केंद्र से पीएचडी ग्रहण की। पांच सौ से अधिक शोध कार्य किए गए, जिनका उल्लेख समय-समय पर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फलक पर किया जाता रहा है।

उक्त शोध केंद्र से चल रहे, शोध प्रयोगों के परिणाम ‘प्रोग्रेसिव हॉर्टिकल्चर’ नाम से प्रकाशित, अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका मे प्रकाशित किए जाते रहे। विभाग से देश के लगभग पर्वतीय राज्यो के साथ-साथ, पड़ोसी देशों नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान इत्यादि को फल रोपड़ सामग्री उपलब्ध कराने के साथ-साथ विभिन्न कार्य विधियों मे प्रशिक्षण भी दिया जाता रहा। अनेकों फलों की उन्नत प्रजाति की किस्मे भी विकसित की जाती रही।

पर्वतीय भू-भाग, रानीखेत स्थित उद्यान विभाग का तत्कालीन समय, स्वर्णकाल के नाम से जाना गया। उद्यान विभाग के सभी केन्द्र, फल, पौधों, विभिन्न सब्जीयों व आलू बीज के उत्पादन में आत्मनिर्भर था। कृषकों की सभी मांगो की पूर्ति, समय से पूरा करने में उद्यान विभाग समर्थ रहा। उद्यान विभाग के अंतर्गत आने वाले सभी उद्यानों मे उत्पादित, उन्नत किस्म के फलों में सेब, नाशपाती, पुलम, चेरी, आडू, आंवला, संतरा, किन्नो, अनार, बादाम, पिकन्नट, अखरोट, नीम्बू वर्गीय फल-पौधों की विभिन्न किस्मो व प्रजातियों की पैदावार व रोपण परिणाम, उच्च आकड़ो के तहत, दर्ज होने के प्रमाण हैं।

एशिया महाद्वीप का 106.91 हैक्टेयर क्षेत्रफल मे फैले, सबसे बड़े उद्यान के, 53 हैक्टेयर मे सेब की विभिन्न उत्कृष्ट प्रजातियों मे डेलीशस, रायमर, फैनी, रेडगोल्ड व गोल्डन वैली पेड़ो से प्रति पेड़, लगभग एक कुंतल। कुल सेब उत्पादन, करीब पांच सौ कुंतल किया जाता था। इस उद्यान को सबसे ज्यादा रसीले व स्वादिष्ट, सेब उत्पादन के क्षेत्र मे, पूरी दुनिया में जाना जाता था। बड़ी संख्या में सैलानी, इस एप्पल गार्डन को देखने, रानीखेत, चौबटिया, पहुचते थे।

प्राप्त आकड़ो के मुताबिक उत्तराखंड मे 93 राजकीय उद्यान हैं। नए राज्य गठन के बाद, अनेकों कारणों से ये उद्यान, खस्ताहाल होते चले गए हैं। राज्य की आर्थिकी को मजबूती देने के बजाय, राज्य के बजट को जाया कर रहे हैं। राज्य में स्थापित रही, अदलती-बदलती, पक्ष-विपक्ष की सरकारे, उक्त उद्यानों का खर्च वहन करने में असमर्थता जताती रही हैं। उद्यान व बगानों को अंदर खाते, निजी हाथों में सौपने हेतु, उत्सुक रही हैं।

उत्तराखंड मे स्थापित, नारायण दत्त तिवारी, कांग्रेसः सरकार (2002-2007) के कार्यकाल में प्रदेश के उद्यान व बगानों को निजी हाथों में सौपने का खामियाजा भुगत चुकने के बाद भी, वर्तमान भाजपा सरकार के नीति-निर्माताओं द्वारा पुनः उसी सोच के तहत, तीन कैटेगरियो मे विभक्त ए कैटेगरी के बत्तीस उद्यानो का दायित्व सरकार के उद्यान विभाग के पास रख, अन्य बचे सभी उद्यानो को निजी हाथों मे, यह व्यक्त कर, सौप दिए जाने की योजना है, कि पहले भाई-भतीजावाद के तहत उद्यान लीज पर दे दिए गए थे, अब उनकी जीरो टालरैंश की सरकार, आमंत्रित निविदा व अनुभव के आधार पर उद्यानों का आवंटन करेगी।

प्रशासन की हील-हवाली, सबद्ध मंत्रियों की अनुभवहीनता के आड़े आने व उचित रख-रखाव न होने से उद्यान व बगानों की दुर्दशा तथा उनको निजी हाथों मे सोपे जाने से हुई, महादुर्दशा के अनुभवो से स्थापित राज्य सरकारों ने कोई सीख नहीं ली। नए राज्य गठन के बाद, स्थापित सरकारों द्वारा लिए गए फैसले, राज्य के उद्यान व बगानो के संरक्षण व संवर्धन में, परवान चढ़ाते नजर नहीं आए। 2004 मे राज्य सरकार द्वारा लिए गए निर्णय के तहत, उद्यान से सबद्ध पूर्व में गठित सभी शोध केंद्रों को, गोबिंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर के अधीन कर दिया गया था। 2012-13 मे पुनः उक्त उद्यान केंद्रों को, भूल चूक के तहत, उद्यान विभाग के अधीन कर दिया गया था।

विदेशी प्रजाति सेब उत्पादन की लालसा में, नीति निर्धारकों द्वारा, पुराने विभिन्न, स्वदेशी प्रजाति के बहुमूल्य फलों की प्रजातियों का संकलन किए बगैर, समूल पेड़ो का विनाश कर, अमेरिकी रेडफ्यूजी, रेडचीफ, डेबर्न बौनी प्रजाति की सेब पौंध, दस एकड़ मे लगाने का दुस्साहस, पौधों के लिए अनुकूल जलवायु न होने के बावजूद किया गया। जो घातक साबित हुआ। रोपित पेड़ो मे कीड़ा लगने से, उत्पादन नही के बराबर हुआ। शोध केंद्र में प्रतिभावान वैज्ञानिको को प्राथमिकता देने के बजाय, मालियों को प्रशिक्षण देने का कार्य किया गया। उक्त कार्यो का उद्यान की कार्यशैली, स्तर व पहचान पर दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

उद्यान विभाग से जुड़े, अनेक अन्य उद्यानों मे, जलवायु के अनुकूल पौधों का चयन न होना। पानी की व्यवस्था का अभाव। उद्यान की घेरबाड न होना। योजनाओं में सारे निवेश, निजी कंपनियों या दलालों के माध्यम से क्रय किए जाने, तथा पुराने अनुभवी कर्मचारियों के सेवानिवर्त हो जाने पर नए कर्मचारियों की भर्ती न किए जाने। सुनियोजित तरीके से पद समाप्त कर दिए जाने। बिना विज्ञान विषय पढ़े कर्मचारियो को वैज्ञानिकों, प्रशिक्षको व अधिकारियों के पद पर काबिज कर दिए जाने, तथा व्याप्त भ्रष्टाचार इत्यादि अनेकों कारणों से उद्यान विभाग घाटे का सौदा बनता चला गया।

विख्यात उद्यान चौबटिया रानीखेत में वर्तमान में 43 हैक्टेयर क्षेत्रफल मे सब्जी व अन्य शेष मे विभिन्न प्रकार के फलों के पेड़ो से उत्पादन किया जा रहा हैं। सेब का उत्पादन मात्र दस हैक्टेयर क्षेत्रफल मे किया जा रहा है। जिसका उत्पादन आंकड़ा शर्मिंदगी के तहत, बया करने योग्य है।

उद्यान विभाग मे स्थाई निर्देशक की नियुक्ति के बदले, विगत बीस वर्षों से स्थापित सरकारों द्वारा निरंतर, दस से अधिक कार्यवाहक निर्देशक एक या दो वर्षों के लिए नियुक्त करने। राज्य के लगभग उद्यान, आलू फार्म, ओद्योगिक फार्म व फल शोध केंद्रों मे अधिकारियों की फौज खड़ी कर देने। अधिकांश अधिकारियों को देहरादून में बिठा दिए जाने के कारणवश प्रदेश के उद्यान केन्द्रो मे गतिविधिया थप पड़ जाने से, बदहाली का आलम छाया हुआ है। उद्यान विभाग से जुड़े केंद्र, बंद होने की कगार पर आ गए हैं। सफेद हाथी बन चुका, ख्याति प्राप्त उद्यान चौबटिया, रानीखेत को वर्तमान मे एक अधिकारी चला रहा है। उक्त उद्यान निदेशालय, वर्तमान मे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए जूझ रहा है।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, उद्यान विभाग व उससे जुड़े अन्य उद्यान केंद्रों की भांति, हेरिटेज श्रेणी में आने वाले उत्तराखंड के चाय बगान, सन 1993 मे कुमाऊं व गढ़वाल विकास मंडल निगमो को संभावित क्षेत्रों में चाय बागानों के विकास का दायित्व सौंप दिए जाने तथा सन् 2000 मे उत्तराखंड राज्य गठन के बाद, सन् 2004 मे चाय विकास बोर्ड की स्थापना हो जाने के बाद भी, अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए जूझ रहे हैं।

राजकीय चाय बागानों की फेहरिस्त मे उदाहरण स्वरूप देहरादून के बाहरी क्षेत्र मे 19 चाय बगान 2024.2 एकड़ में ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा स्थापित किए गए थे, जिनसे 2.97लाख पौंड चाय का उत्पादन होता था। चाय उद्योग की महत्ता का ही परिणाम रहा था, एक समय देहरादून में चाय बगानों की संख्या 73 तक जा पहुची थी। वर्तमान मे अब उसी देहरादून में, एक दर्जन से कम चाय बगान बचे हुए हैं। इन बचे-खुचे चाय बगानों मे करीब 175 वर्ष पुराना, बारह सौ एकड़ से भी अधिक क्षेत्रफल मे फैला, दून चाय बागान, आज ऐतिहासिक धरोहर मात्र रह गया है।

टी-प्लांटेशन एक्ट के तहत, लैंड यूज न बदल सकने के कारणवश, यह भू-माफियाओं के हथकंडों से सुरक्षित रहा है। प्राप्त आकड़ो के मुताबिक प्रतिदिन करीब पंद्रह सौ किलो चाय उत्पादन करने वाला, यह चाय बगान, सन 2015 तक प्रतिदिन तोड़ी जा रही करीब अठारह सौ किलो पत्तियों से, मात्र 350 किलो चाय उत्पादन के दायरे मे, सिकुड़ चुका था। उक्त चाय बगान सत्ताधारी हुक्मरानों द्वारा निजी हाथों मे सौपा गया। राज्य मे अदलती-बदलती सरकारों के क्रम मे, बगान के मालिक भी बदले। बेशकीमती बगान की भूमि टी-एक्ट के तहत किसी अन्य मद मे परिवर्तित न किए जा सकने के कारण मौका परस्त राजनीतिज्ञो द्वारा स्मार्ट सिटी का खेल बुन, बगान की भूमि को खुर्द-बुर्द करने की सोच, चरितार्थ हो रही है।

चाय पत्ती उत्पादन को दरकिनार कर, वर्तमान मे इस ऐतिहासिक धरोहर वाले चाय बगान मे, हरे-भरे पेड़ों का विनाश कर, गेहूं की पैदावार को प्राथमिकता दी जाने लगी है। जिससे हैरिटेज श्रेणी के फंडे से निजात पा, बेशकीमती जमीन पर भू-माफिया अपने राजनैतिक आकाओं की बदहस्ती मे हथकण्डे अपना, स्मार्ट सिटी के नाम पर, करोड़ो का खेल, खेल कर, वारे-न्यारे कर सके। सत्ताधारियों की चाहत पर ही पूर्व में, देहरादून के अन्य ऐतिहासिक चाय बगानों का विनाश कर, अस्तित्व मिटा, भारत पेट्रोलियम संस्थान का विशाल भवन व कलोनी, भारतीय सैन्य अकादमी, डिफेन्स कलोनी व विस्थापितों की पनाह के लिए, भवन निर्माण कार्य किए गए थे।

उत्तराखंड राज्य गठन के बाद, आर्गेनिक चाय उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए कौसानी, बेरीनाग, चमोली, मल्ला कत्यूर, चौकोड़ी व चंपावत स्थित चाय बगानों की समृद्धि हेतु सोचा गया। इसी क्रम में वर्तमान प्रदेश कृषिमंत्री सुबोध उनियाल अब औद्योगिक पर्यटन की बात कर रहे हैं, जिसके तहत चार राजकीय उद्यानों रामगढ़, धनोल्टी, खिर्सू व चौबटिया रानीखेत को 80 लाख रुपयो के बजट से विकसित करने पर बल दिया जा रहा है। योजना धरातल पर उभर कर आएगी या चकबंदी के ऐलान की तरह, ठंडे बस्ते मे पड़ी रहेगी, जनमानस के सम्मुख ज्वलंत सवाल बन कर उभर रहा हैं।

अस्तित्व की बाट जोह रहे, अन्य उद्यान व छोटे-मोटे बाग बगीचों की फेहरिस्त में देहरादून, रामनगर व हल्द्वानी स्थित लीची व आम के लजीज स्वाद के लिए मशहूर रही फल पट्टी भी भू व खनन माफियाओ की विनाशकारी नजरों से जुदा नही रहे हैं। इन फल पट्टी क्षेत्रो को माफियाओं द्वारा उप खनिज स्टाक अड्डा बनाकर, साम-दाम-दंड भेद की नीति से किसानों की भूमि कब्जा, विशाल आबादी की बसावट कर, बर्बाद कर दिया गया है। उदाहरण स्वरूप, रामनगर की फल पट्टी मे 800 हैक्टेयर मे आम प्रजातियों मे लगड़ा, दशहरी, चौसा इत्यादि करीब 20 हजार मीट्रिक टन और 900 हैक्टेयर मे लीची, 10 मीट्रिक टन की पैदावार प्रतिवर्ष की जाती थी। फलो के उत्पादन का यह आंकड़ा, माफियाओं की कारगुजारियो से, प्रतिवर्ष गर्त मे जाता नजर आ रहा है।

उत्तराखंड में क्रमशः अदलती-बदलती सरकारों मे शीर्ष नेतृत्व के अभाव, तथा प्रदेश की समृद्धि व जनसरोकारों हेतु स्थापित सरकारों का विजन न होने से, प्रदेश के प्रबुद्ध जनमानस के सम्मुख घोर निराशा ही प्रकट हुई है। हैरत का विषय है, जिस उत्तराखंड से अंग्रेज हुक्मरानों ने चाय उद्योग की शुरुआत की थी, जिस क्षेत्र की चाय के दीवाने दुनियाभर में थे, उत्पादित सेब विश्वभर मे प्रसिद्ध था, आज उन उद्यान व बगानों का नाम प्रमुख उत्पादकों मे कही नही है। प्रदेश की ऐतिहासिक धरोहरों मे स्थान प्राप्त, उद्यान व बगानों का अस्तित्व खतरे में नजर आ रहा है। निजीकरण की नीति के तहत, इनके बचे-खुचे अस्तित्व को सुनियोजित तरीके से समाप्त करने की सोची जा रही है, जो सर्वथा निंदनीय है।

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