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हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड एक मात्र राज्य, जहां का भूमि कानून है दंतविहीन

उत्तराखंड को चाहिए हिमाचल की तर्ज पर कठोर भूमि कानून

 

– डा. हरीश चंद्र लखेड़ा

 

– हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड एक मात्र ऐसा राज्य ंहै जिसका भूमि कानून सबसे लजीला है। दंतविहीन है। इसीलिए अब उत्तराखंड के लोग एक बार फिर से आंदोलन की राह पर है। इस बार प्रदेश में हिमाचल की तर्ज पर कठोर भूमि कानून बनाने तथा मूल निवास की कट ऑफ डेट 1950 करने की मांग हो रही है। इसके साथ ही जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए प्रदेश में संविधान का 5वां शिड्यूल लागू करने की मांग भी शामिल है। इन मांगों को लेकर प्रदेश का युवा मुखर है, सड़कों पर है और लगातार रैलियां करने में लगा है। 2027 में प्रदेश विधानसभा के चुनाव के मद्देनजर प्रदेश की भाजपा सरकार युवाओं के इस आंदोलन से परेशान है और भूमि कानून को लेकर कमेटियां बनाने में लगी है।

उत्तराखंड में मूल निवास और सख्त भू-कानून लागू करने की मांग पर हाल में ऋषिकेश, देहरादून, हल्द्वानी, भिकियासैंण, और बागेश्वर समेत कई शहरों में प्रदर्शन हुए हैं। इनमें सबसे अधिक भागीदारी युवा वर्ग और महिलाओं की रही है। युवा वर्ग प्रदेश की भाजपा सरकार पर दबाव बनाने के लिए इस मूल निवास स्वाभिमान आंदोलन को तेज करने की कोशिश में है। इसके लिए जिला और ब्लॉक स्तर पर संघर्ष समितियां बनाई जा रही हैं। आंदोलन को धार्मिक आयोजनों के माध्यम से भी आगे बढ़ाया जा रहा है। मूल निवास स्वाभिमान आंदोलन युवाओं का मनाया संगठन है।

 

उत्तराखंड में लंबे समय से मौजूदा भूमि कानूनों को बदलने की मांग होती रही है, क्योंकि पूरे हिमालय क्षेत्र में अकेला उत्तराखंड ही है जहां के भूमि कानून को वहां के नेताओं ने दंतविहीन मना दिया। इसलिए लोग हिमाचल प्रदेश की तरह उत्तराखंड के लिए कठोर भूमि कानून चाहते हैं। लेकिन उत्तराखंड के भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों दलों के नेता इस मुद्दे पर गंभीर नहीं दिखते हैं। इससे पहाड़ के लोग विशेषतौर पर युवा वर्ग उबल रहा है।

 

दरअसल, उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने दिसंबर 2018 में उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून-1950 में संशोधन किया था। इसमें धारा 143(क) जोड़ कर यह प्रावधान कर दिया कि औद्योगिक उपयोग के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या फिर उससे कोई भूमि खरीदे तो उस भूमि को अकृषि करवाने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी होगी। उद्योग लगाने के नाम पर भूमि खरीदते ही उसका भू उपयोग स्वतः बदल जाएगा और वह -अकृषि या गैर कृषि हो जाएगी। इसी कानून में धारा 154(2) भी जोड़ी गयी। इसके तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति 12.50 एकड़ जमीन खरीद सकता है। इससे धन्ना सेठों को गांवों की जमीन को खरीदने की छूट जैसे मिल गई। इस में भाजपा और कांग्रेस, दोनों के नेता शामिल रहे हैं। क्योंकि इनके आका दिल्ली में जो बैठते हैं।

 

सबसे पहले उत्तराखंड में 2002 में कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार ने बाहरी व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर तय की थी। बाद में भाजपा सरकार आने पर खंडूरी सरकार ने 2007 में इसे घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया गया। लेकिन 2018 में भाजपा की त्रिवेद्र रावत सरकार ने तो कृषि भूमि खरीदने की सीमा बढ़ाकर 12.50 एकड़ करके इस कानून को लचीला बना दिया। भाजपा सरकार का इस मामले में एक ही तर्क रहता है कि पूंजी निवेश के लिए भूमि खरीद संबंधी कानून बदले गए।

 

युवा वर्ग की शिकायत है कि भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ने उत्तराखंड के पहाड़ों की भूमि को बचाने की बजाए बाहरी लोगों के हाथों सौंपने के प्रयास ज्यादा किए। संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय इस जमींदारी उन्मूलन कानून को बनाने का उद्देश्य पहाड़ की जमीन को भू माफिया के हाथ में जाने से रोकना था। इसके तहत बाहरी लोग राज्य में एक निर्धारित मात्रा से ज्यादा जमीन नहीं खरीद सकते थे। यह कानून संयुक्त उत्तर प्रदेश सरकार ने बनाया था, लेकिन उत्तराखंड सरकार ने इसे दंतविहीन बना दिया। लोगों का मानना है कि उत्तराखंड के नेताओं की समझ में यह बात नहीं आ रही है कि जिन उद्देश्यों को लेकर उत्तराखंड राज्य आंदोलन हुआ था, उसमें अपनी संस्कृति को बचाना भी था। जब भूमि ही अपनी नहीं रहेगी तो संस्कृति कैसे बचेगी।

 

यह जानना आवश्यक है कि उत्तराखंड के लोग सिर्फ गांवों की कृषि और जंगलों की भूमि को बाहरी लोगों को बेचने के विरोध में हैं। देहरादून, कोटद्वार, हरिद्वार, रुड़की, हल्द्वानी, रुद्रपुर जैसे शहरों में बाहरी लोगों के जमीन खरीदने के खिलाफ नहीं हैं,क्योंकि पहाड़ के लोग भी दूसरे राज्यों में बसे हैं, वहां रहते हैं। यह मांग इसलिए भी हो रही है कि इससे ही हिमालयी बचेगा। हिमालयी क्षेत्रों में भीड़भाड़ बढ़ने से ग्लेशियर और तेजी से पिघलेंगे और एक दिन ऐसा आएगा कि गंगा-यमुना की सरस्वती जैसी विलुप्त हो जाएंगी। इससे देश में जल और अन्न का संकट पैदा जाएगा। इसके अलावा वह बताना भी आवश्यक है कि इस तरह का कानून हिमाचल प्रदेश के साथ ही पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों और आदिवासी बहुल राज्यों में पहले से बने हैं। उत्तराखंड में भी लगभग ऐसा ही कानून था, लेकिन मुख्यमंत्री रहते हुए पहले तो कांग्रेस और फिर भाजपा सरकार ने ने इस कानून को दंतविहीन बना दिया।

 

 

 

 

 

इसलिए उत्तराखंड में मांग हो रही है कि वहां भी हिमाचल की तर्ज पर मजबूत भू-कानून बनाया जाए।

 

हिमाचल में मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार के समय में 1972 में भमि की खरीद खरोख्त को लेकर कठोर कानून बनाया गया। इस कानून के तहत बाहरी लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते थे। यह हिमाचल के नेताओं की दूरदर्शिता थी। तब हिमाचल आज की तरह संपन्न नहीं था। लोगों को भय था कि कहीं हिमाचल के लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन न बेच दें। इससे वे वे भूमिहीन हो जाते। भूमिहीन होने का अर्थ है कि अपनी संस्कृति और सभ्यता को भी खोने देते। इसलिए कांग्रेस शासन में हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार यह कानून लेकर आ गए थे।

 

हिमाचल प्रदेश में संविधान का अनुच्छेद-371 लागू है। इसके तहत हिमाचल प्रदेश के बाहर के व्यक्ति वहां कृषि की भूमि नहीं खरीद सकते हैं। हिमाचल भूमि सुधार कानून-1972 के तहत प्रदेश में बाहरी लोग कृषि भूमि नहीं खरीद सकते हैं। अर्थात गैर हिमाचली नागरिक को वहां भूमि खरीदने की अनुमति नहीं है। व्यावसायिक प्रयोग के लिए भूमि को किराए पर लिया जा सकता है। साफ है कि हिमाचल प्रदेश में बाहरी लोग जमीन नहीं खरीद सकते हैं। यहां तक कि गैर कृषक हिमाचली भी यहां कृषि योग्य जमीन नहीं खरीद सकते हैं, भले उनके पास हिमाचल का राशन कार्ड क्‍यों न हो। हिमाचल प्रदेश में जमीन खरीदने के लिए सरकार से विशेष अनुमित लेनी पड़ती है। कृषि के लिए वही व्यक्ति जमीन ले सकता है जिसका वहां कोई रिहायशी प्लाट हो। हालांकि 2007 में भाजपा सरकार ने धारा -118 में संशोधन कर दिया। इसके तहत हिमाचल में 15 साल से रह रहे बाहरी लोगों को भूमि खरीदने की अनुमित दे दी गई। इस फैसले का भारी विरोध होने पर भाजपा की नयी सरकार ने इस अवधि को बढ़ा कर 30 साल कर दिया।

 

जम्मू-कश्मीर में भी पहले बाहरी लोग जमीन नहीं खरीद सकते थे। लेकिन अगस्त, 2019 में अनुच्छेद 370 को हटाने के साथ ही वहां बाहरी लोगों के लिए भूमि खरीदने के दरवाजे खोल दिए गए। लेकिन लोग इस फैसले का भारी विरोध कर रहे हैं। इससे पहले अनुच्छेद 35-ए के तहत सिर्फ जम्मू-कश्मीर के निवासी ही वहां जमीन की खरीद-बिक्री कर सकते थे। यदि कोई कश्मीरी लड़की किसी बाहरी व्यक्ति से विवाह कर लेती थी तो उसका अपने पिता या पूर्वजों की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहता था।

 

आठ बहनों के रूप में जाने जाने वाले पूर्वोत्तर राज्यों को भी कमोबेश इसी तरह का अधिकार मिला है। वहां बाहर के लोग ज़मीन नहीं ख़रीद सकते हैं। पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों में दूसरे राज्यों के लोग भी एक-दूसरे के राज्‍य में जमीन नहीं खरीद सकते हैं। मिज़ोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में 1873 के बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन के तहत इनर लाइन परमिट व्यवस्था लागू है। यानी अन्य राज्यों के लोग बगैर इस परमिट के इन राज्यों में जा नहीं सकते। वे ज़मीन भी नहीं खरीद सकते। मणिपुर में भी इसी तरह की व्यवस्था है।

 

सिक्किम में संविधान का अनुच्छेद 371(एफ) लागू है। इसके तहत सिक्किम के लिए विशेष शक्तियों का प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेद की वजह से सिर्फ स्थानीय लोग ही राज्य में जमीनों की खरीद-बिक्री कर सकते हैं और बाहरी लोगों के राज्य में संपत्ति की खरीद-बिक्री करने पर रोक है। यानी सिक्किम में केवल सिक्किम के निवासियों को ही जमीन खरीदने की अनुमति है। इसके अलावा राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में केवल आदिवासी समुदाय के लोग भूमि और संपत्ति खरीद सकते हैं।

 

अरुणाचल प्रदेश में अनुच्छेद 371(एच) अमल में है। इसके तहत राज्य की कानून और व्यवस्था की स्थिति पर राज्यपाल को विशेष अधिकार मिलता है। अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की तरह यहां पर भी स्थानीय निवासियों को जमीनों पर मालिकाना अधिकार दिया गया है और उनके अलावा अन्य लोग जमीन नहीं खरीद सकते।

 

नगालैंड में 371 (ए) लागू है। इसके तहत वह व्यक्ति जो नागालैंड का स्थाई निवासी नहीं है, राज्य में ज़मीन नहीं खरीद सकता है। इसके साथ ही कई ऐसे मामले हैं, जिनमें दखल नहीं दी जा सकती है। इनमें जमीन का स्वामित्व और खरीद-फरोख्त के साथ ही धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां, नगा संप्रदाय के कानून, नगा कानूनों के आधार पर नागरिक और आपराधिक मामलों में न्याय तथा शामिल हैं।

 

मिजोरम में अनुच्छेद 371(जी) लागू है। इसके तहत वहां के स्थानीय मिजो समुदाय के लोगों को परंपरागत अधिकार मिले हुए हैं। वहां पर भी जमीन का मालिकाना हक सिर्फ यहां रहने वाले आदिवासियों को ही प्राप्त है। हालांकि बाहरी लोग उद्योग धंधों की स्थापना के लिए सरकार से जमीनें खरीद सकते हैं। भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून-2016 में यह प्रावधान कर दिया गया कि प्राइवेट कंपनियां वहां सरकार से ज़मीन खरीद सकती हैं।

 

असम को अनुच्छेद 371 (बी) के तहत विशेष शक्तियां मिली हुई हैं। इसके तहत कई आदिवासी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन खरीदने की मनाही है।

 

मणिपुर में अनुच्छेद 371(सी) लागू है। इसके तहत मणिपुर को भी असम की तरह ही विशेष शक्तियां हासिल हैं। स्थानीय जनजातियों के अधिकारों की रक्षा के लिए यहां पर भी स्थानीय लोगों को छोड़कर अन्य राज्यों के नागरिक जमीन नहीं खरीद सकते।

 

 

 

गोवा को अनुच्छेद 371(आई) के तहत भूमि की बिक्री, संपत्ति के स्वामित्व पर कानून बनाने के अधिकार हैं।

 

कर्नाटक में अनुच्छेद 371 (जे ) लागू है। इसके तहत जो व्यक्ति किसान नहीं है और जिसकी सालाना आय 2 लाख से ज्यादा है कृषि भूमि नहीं खरीद सकता है। उद्योग-धंधों के लिए जमीन खरीदने के लिए राज्य सरकार से अनुमति लेना पड़ती है।

 

तमिलनाडु में 59.95 एकड़ से ज्यादा कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती। जबकि मकान बनाने के लिए जमीन खरीदने की स्थिति में खरीदार को ये साबित करना होता है कि पिछले 10 साल से उस जमीन का इस्तेमाल कभी कृषि भूमि के रूप में नहीं हुआ है।

 

इसके अलावा आदिवासी बहुल राज्यों में भी इस तरह के प्रावधान हैं। वहां अनुसूचित इलाक़ों के लिए बनाये गए कानूनों के तहत ज़मीन को बेचने पर पूरी रोक है। उदाहरण के तौर पर झारखंड के संथाल परगना काश्तकारी कानून और छोटानागपुर काश्तकारी कानून के तहत वहां किसी भी स्थानीय आदिवासी की ज़मीन ख़रीदी या बेची नहीं जा सकती।

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