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उत्तराखंड के कस्बो व शहरो मे बैठ व खडी होली गायन की मची है धूम

सी एम पपनैं

भवाली (नैनीताल)। उत्तराखंड कुमांऊ अंचल के पहाडी कस्बो व शहरो मे कोरोना संक्रमण त्रासदी के बाद सामान्य तौर पर महिलाओ व पुरुषों के समूहों द्वारा अलग-अलग घरों में दिन व रात मे होली गायन की धूम मची हुई है। होली मे पुरुष होल्यार, चटख सफेद रंग का कुर्ता व पायजामा तथा महिलाऐ परंपरागत साड़ियां धारण कर होली गायन मे प्रतिभाग करती नजर आ रही हैं। महिलाओ और पुरुषो द्वारा आयोजित होली गायन मे अंतर भी देखा जा रहा है। महिलाऐ बैठ कर, होली गीत गा रही हैं। हर घर में महिलाओ का उल्लास, उमंग और पारंपरिक गीतों की मधुर ध्वनि, सबके मन को सुकून देती नजर आ रही है। पुरुष होल्यारो के समूह गोल घेरे या सामूहिक रूप से हुड़का, ढोलक, मंजीरा आदि बजा नाच, ठुमके लगाते हुए, होली गीत गाते नजर आ रहे हैं। पुरुष व महिला होल्यारो को प्रत्येक घर पर गुड़, मिठाई, गुजिया, आलू के गुटके, भांग चटनी व चाय इत्यादि का खान-पान कराया जा रहा है। अनेको सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन महिलाओ व पुरुषो के होली गायन का आयोजन करते नजर आ रहे हैं। आधुनिक बदलाव के इस दौर मे, कही-कही पुरुष व महिलाओ की सामूहिक बैठके भी आयोजित होती दिख रही हैं।

 

इस वर्ष सामान्य रूप से होली का त्योहार विभिन्न प्रकार के आयोजन कर मनाया जा रहा है। नैनीताल में शारदा संघ, युगमंच, नैना देवी ट्रस्ट व नैनीताल समाचार द्वारा होली के अनेको कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। उत्तराखंड कुमांऊ के अन्य प्रमुख कस्बो व शहरो मे प्रमुख हल्द्वानी, भवाली, गंगोलीहाट, पिथौरागढ, चम्पावत, लोहाघाट, द्वाराहाट, भतरोजखान, अल्मोड़ा एव रानीखेत मे रंग एकादशी के दिन, चीर बंधन के बाद से, स्थानीय होली गायको व रसिको के मध्य, दिन-रात होली गायन की खुमारी चढी हुई है।

महिलाओ द्वारा गाए जा रहे होली गीतों मे-

 

1-ओ रघु नंदन राजा….ब्रह्मा विष्णु महेश मनाओ…होली…।

2- बाके भवन मे विराजे होली…कृष्ण मुरारी खेलन आए होली…राधा को खेलन लाए होली…।

3- कान्हा रे कान्हा तूने ये क्या किया… वो-वो रंग लगाने का दिन आने लगा… देखो गोकुल से कान्हा आने लगे… देखो बरसाने राधा आने लगी….राधा की सखिया आने लगी, कान्हा को माखन खिलाने लगी…।

4- पावन गलीयन मे, सखी पावन गलीयन मे होली खेल रहे कान्हा… होली खेल रहे कान्हा, पावन गलीयन मे…।

5- होली खेल रहे राजा दशरथ के बीर…।

इत्यादि तथा पुरुष होल्यारो के खडी होली गीतों मे-

1- मोहन गिरधारी….।

2- चल उड़ जा भवर तुझे मारैगे…। इत्यादि इत्यादि बहुतायत मे गाए जा रहे हैं।

 

जिन घरों मे होली गायन आयोजन हो रहा है, होल्यारो द्वारा होली आशिर वचन गुंजायमान हो रहे हैं-

हो हो होलक रे… बरस दिवाली बरसे फाग… आज का बसंत कै का घरो…. आज का बसंत….का घरों… इनरो पूत परिवार जियो लाख सौ भली… हो हो होलक रे…।

पारंपरिक तौर पर उत्तराखंड के पहाड़ी अंचल मे होली पर्व को बैठकी होली व खड़ी होली के साथ-साथ, बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप मे तथा पहाड़ो मे ठिठुरती कड़क ठंड के अंत और खेतो मे नई बुआई के मौसम की शुरुआत के प्रतीक रूप मे उमंग व हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।

राष्ट्रीय फलक पर ब्रज के बाद, कुमांऊ की होली को विशिष्ट माना जाता है। उत्तराखंड कुमांऊ अंचल की पारंपरिक संस्कृति की विशिष्ट पहचान, राग आधारित शास्त्रीय गीत-संगीत बैठकी गायन होली का उल्लेख चंद राजाओं के समय से मिलता है। यह एक ऐसी परंपरा है जो दशकों से राष्ट्रीय फलक पर लोकप्रिय रही है। राग आधारित इस शास्त्रीय गीत-संगीत बैठकी होली परंपरा की शुरुआत पंद्रहवी शताब्दी मे चंपावत के चंद राजाओं के महल तथा इसके आसपास के क्षेत्रो से मानी जाती है। माना जाता है चंद वंश के राज्य विस्तार के साथ-साथ शास्त्रीय होली गायन विधा का भी क्षेत्र विस्तृत होता चला गया। जिसका मुख्य केंद्र बाद के वर्षो मे अल्मोड़ा बन गया था। स्मृद्धि की ओर बढ़, यह गायन विधा एक परंपरा सी बनती चली गई, जिसका पालन कद्र दान व कलाकार आयोजित होली महफिलों मे वर्तमान तक करते चले आ रहे हैं।

कुमांऊ की होली अनोखी होती है। जिसे रागो व रंगो से मनाया जाता है। पौष का महिना आते ही

आध्यात्मिक बैठकी होली बसंत पंचमी से आरंभ हो जाती है। पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस मे डूबी होली गीत गाए जाते हैं।

बसंत पंचमी के आते ही होल्यारो का उत्साह देखने योग्य होता है। महा-शिवरात्रि से खडी होली शुरू हो जाती है। रंग एकादशी के दिन चीर बांधी जाती है। एकादशी से होली का त्योहार पूरे सवाब पर चढ़ जाता है। महिला व पुरुष समूह कदमताल करते गीतों मे झूमते नजर आने लगते हैं।

सांझ ढलते ही होल्यारो की महफिले सज जाती हैं। होली की बैठकों मे हर उम्र के लोग शामिल होते हैं। होल्यार मुक्त कंठ से भाग लगाते हैं। वाद्ययंत्रों की जुगलबंदी इस उल्लास को और खास बनाती नजर आती है। ढोल, मंजीरे, हारमोनियम, हुड़का, चिमटा, ढपली, थाली की मधुर ध्वनि संगीत मे जान डालती है। रात भर होली गायन का क्रम सवाब पर होता है। होल्यारो की पूरी रात मस्ती में गुजर जाती है। पता ही नहीं चलता कि भोर कब हुई। छलडी से सप्ताह पूर्व, कपड़ो में रंग छिड़का जाता है। होली आयोजन मे अबीर, गुलाल लगाने का प्रचलन है।

होली बैठक में राग आधारित गायन ही किया जाता है। सांयकालीन राग से बैठक का शुभारंभ किया जाता है। गायन मे सबसे पहले भगवान गणेश का स्मरण किया जाता है। अन्य देवी-देवताओ, प्रकृति प्रेम इत्यादि के गीत गाए जाते हैं। कुछ गीतों मे मस्ती का मिला-जुला घोल भी समाहित रहता है। सुबह भैरवी राग गाकर, होली बैठक समाप्त की जाती है।

होली गायन मे बसंत पंचमी से प्राकृतिक वर्णन के गीतों की प्रमुखता रहती है। होली गायन मे भक्ति, बैराग्य, विरह, कृष्ण गोपियो की हंसी ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर भाभी की छेड़-छाड़ सभी रस मिलते हैं। होली गायन मे वात्सल्य, श्रृंगार व भक्ति रस का एक साथ मौजूद रहना इस होली गायन की खास खूबी है। सभी बंदिशे राग-रागीनियो मे गायी जाती हैं। यह खांटी का शास्त्रीय गायन कहलाया जाता है।

बैठकी होली त्योहार को एक गरिमा देती हैं। जो अपने सम्रद्ध लोकसंगीत की वजह से उत्तराखंड की संस्कृति मे रच बस गई है। कुमांऊ का राग आधारित होली गायन कुमांऊनी नाम से जरूर जाना जाता है पर इसकी भाषा ब्रज है जो इसकी खूबियो मे सुमार रहा है।

होली त्योहार मे कई जगह चीर प्रथा का भी प्रचलन है। हर घर से, नए कपडे का एक छोटा टुकड़ा जमा कर, पवित्र ‘पौय’ पेड की डाली पर बाधा जाता है। बडे आंगन में यह चीर की डाली गड्डा खोद, गाड़ कर, खडी की जाती है। धुलेडी के दिन एक होल्यार उक्त चीर को लेकर अन्य होल्यारो के आगे-आगे चलता है। बांकी होल्यारो की टोली उसके पीछे चलती है। पुरुष टोली के बीच एक लड़का लड़की बन, स्वांग रच, हंसी ठिठोली कर, होली की मस्ती मे त्योहार मे उमंग व हर्षोल्लास का रंग भरता है। महिलाओ की टोली में उक्त स्वांग, महिला पुरुष रूप धारण कर हंसी ठिठोली करती है।

पूर्णिमा के दिन चीर दहन और अगले दिन छरडी होती है। होली के अगले दिन, टीका कार्यक्रम चलता है। गांव, कस्बो व शहर के मंदिर में सब लोग जुटते हैं। मीठा पकवान बना, सब मिल बैठ कर खाते हैं। होली टीका के साथ त्योहार का समापन होने पर सब एक दूसरे को बधाई देते हैं।

होली पर्व का उद्देश्य मानव कल्याण है। लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओ, किस्से , कहानियों और यहां तक कि मुहावरो मे भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओ व दिलचस्प पहलुओ की झलक मिलती है।

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