जापान से लौटे रमेश चंद्र सुंदिरयाल गांव के युवाओं के लिए बने प्रेरणा
अमर चंद्र पौडी।कोरोना काल में एक ओर जहां अनेक लोगों का काफी कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ा है वहीं ऐसी भी शख्सियतें हैं जिन्होंने धोर निराशा के दौर में भी आशा का उजाला बिखेरा है।
ऐसी ही एक शख्यिसत हैं रमेश चंद सुदंरियाल, जिन्हेंने पहाड़ की चट्टानी जमीन को भी सोना उगलने के लिए अपने चट्टानी इरादों से मजबूर कर दिया है।
श्री सुंदरियाल का जन्म उत्तराखण्ड के पौड़ी जिले के पौड़ी विकासखण्ड के एक छोटे से गाॅव कवाल्ली (कालेश्वर) में हुआ। रमेश चंद सुंदरियाल से अमर संदेश ने उनके कृतित्व को लेकर बातचीत की।
साक्षात्कार के दौरान रमेश चंद्र ने बताया कि उनकी प्राथमिक शिक्षा गाॅव के ही सरकारी स्कूल में हुई। बाद में उनके पिताजी की दिल्ली में नौकरी लग गयी और उनका परिवार दिल्ली में प्रवास पर रहेन लगा। दिल्ली मे ही उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की और जापानी भाषा में महारत प्राप्त की।
श्री सुंदरियाल ने बताया कि कोरोना में वह जापान में अपना व्यवसाय कर रहे थे। वे जापान में एक प्रवासी के तौर पर रहते हुए अपना व्यवसाय संचालित कर रहे थे। वह निरंतर अपने गाँव आते रहते हैं और महामारी के दौरान ही उन्हें अपने पैतृक गाॅव में कुछ करने का ख्याल आया और उन्होंने अपने गाॅव आने का फैसला लिया। गाॅव पहुंचकर उन्होंने सबसे पहले अपने पुराने जीर्ण-शीर्ष घर को नये सिरे से बनवाया और वहीं पर एक नयी शैली का मकान भी बनवाया।
रमेश चंद्र सुंदरियाल ने बताया कि जब वह अपने गाॅव पहुंचे तो उन्हें अपने पूर्वजों के बंजर खेत देखकर काफी दुख हुआ। गाॅव के अधिकतर धरों में ताले देखकर और उनकी जीर्ण-शीर्ण हालत देखकर वे काफी द्रविह हुए। उन्होंने अपने गाॅव के अन्य लोगों से गाॅव की दुर्दशा और पलायन तथा बेरोजगारी पर चर्चा की। श्री सुंदरियाल ने गाॅव में ही रहकर रोजगार करने की ठानी और स्माल स्टाॅर्टअप करके बंजर खेतों में 500 सेब के पौधों को खरीदकर दो सेब के बागान लगाये।
उन्होंने स्वयं ही स्वरोजगार की राह नहीं पकड़ी बल्कि गाॅव के अन्य युवाओं को भी इस अभियान से जोड़ा। अपने ही गाॅव के बारहवीं पास युवक हिमाॅशु को उसकी बंजर पड़ी जमीन पर श्री सुंदरियाल से सेब का बाग लगाने में सहयोग किया। और उसको उस बाग की जिम्मेवारी सौंप दी। जब बाग अच्छी तरह लग गया तो उसने प्रेरित होकर अपनी मेहनत से हिमांशु ने बाग का विस्तार कर अखरोट तथा नाशपती के भी सो-सौ पौधे अपनी बंजर जमीन पर लगाये।
उसकी मेहनत रंग लाने लगी है। रमेश चंद्र ने बताया कि हिमांशु बारहवीं पास कर अन्य युवाओं की भांति पलायन की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहता था। परन्तु उनकी प्रेरणा और राय पर वह गाॅव में ही रूक गया। आज वह गौरव के साथ बागवानी तो कर ही रहा है अन्य युवाओं और बेरोजगारों के लिए भी प्रेरणा बन गया है। उसके बगीचे को देखकर गाॅव के अन्य युवा और पड़ोसी गाॅवों के युवाजन भी खेती-बाड़ी तथा बागवानी की ओर रूख करने लगे हैं।
मौजूदा कोरोना काल में दिल्ली, मुंबई, चण्डीगढ़ आदि मैदानी महानगरों में कार्यरत अनके उत्तराखण्डी प्रवासियों की अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। ऐसे ही अनेक स्थानीय युवा जब अपनी आजीविका गाॅवों में ही तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। बाजार में उत्तराखण्ड के सेब की अच्छी कीमत के चलते सेबों का उत्पादन युवाओं को आकर्षित कर रहा है। रमेश चंद्र ने बताया कि जापान में रहते हुए व्यवसाय करने के दौरान उनके अन्य अनके देशों के उद्यमियों से भी संबंध बने। इन संबंधों का लाभ वे वर्तमान में अपने गाॅव और प्रदेशवासी युवाओं का दिलाना चाहते हैं। वे यूरोपीय देशों में उत्पादित होने वाले फल तथा सब्जियों पर शोध कर रहें हैं। ताकि उनका स्थानीय स्तर पर उत्पादन किया जा सके। उन्होंने बताया कि 500 सेब के पौधों को खरीदकर दो सेब के बागान लगाये। यह सब उनके व्रद माता जी व पिताजी की मेहनत के कारण ही संभव हो सका।
श्री सुंदरियाल उत्तरखण्ड के प्राकृतिक संसंसाधनों के संरक्षण पर भी पूरा जोर देते हुए कहते हैं कि उत्तरखण्ड के प्राकृतिक उत्पादों पर उन्हें काफी गर्व है। वे इन उत्पादों को विदेशी बाजार में उत्तम पहचान दिलाने के लिये भी प्रयास कर रहें हैं। श्री सुंदरियाल ने उत्तरखण्ड के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल के प्रति व्यक्त करते हुए कहा कि उन्होंने मुझे उत्तराखण्ड में कृषि से जुडने की प्रेरणा प्रदान की तथा हर संभव सहयोग का आवश्वासन दिया। रमेश चंद्र ने बताया कि उन्हें उनके मित्र डाॅनवीन नैनवाल तथा श्री के सी पाण्डे से भी सराहनीय सहयोग तथा मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है।
रमेश चंद्रसुंदरियाल का मानना है कि पहाड़के युवा अगर ठान लें तो पहाड़ को प्रवास तथा पलायन की पीड़ा से सदा के लिये मुक्त किया जा सकता है।
“जिस प्रकार एक चींटी अपने से १०० गुना अधिक बड़ा अपना विशालकाय भोजन (कोई कीड़ा)कुछ चींटियों के साथ मिलकर कितने साहस से खींच कर अपने गंतव्य तक लेकर पहुँच जाती हैं।
बस हमे भी ठीक ऐसी ही सोच अपनाकर कुछ करना चाहिए जहां सब लोग मिलकर अपने कार्य को सरल तरीक़े से एक मुक़ाम तक सफलतापूर्वक पहुँचा सकें और “सबका साथ सबका विकास” प्रणाली को साकार कर सकें।”
बस जब एक चींटी कर सकती हैं तो हम सब क्यों नहीं।