उत्तराखण्डदिल्लीराष्ट्रीयहमारी संस्कृति

उत्तराखंड की लोक संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन’ विषय पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में आयोजित प्रभावशाली संगोष्ठी सम्पन्न

अमरचंद
नई दिल्ली। अंतरराष्ट्रीय लोक कला दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक क्षेत्र में विभिन्न अवसरों पर विश्व के अनेकों देशों में भारत का प्रतिनिधित्व व ओलंपिक थिएटर तक का सफर तय कर चुकी, वर्ष 1968 में स्थापित सुविख्यात संस्था पर्वतीय कला केंद्र दिल्ली द्वारा 22 अगस्त को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से ‘उत्तराखंड की लोक संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन’ विषय पर प्रभावशाली संगोष्ठी का आयोजन संस्था अध्यक्ष सी एम पपनै की अध्यक्षता तथा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र जनपद संपदा विभाग विभागाध्यक्ष प्रोफेसर के अनिल कुमार तथा उक्त विभाग से जुड़े सहायक प्रोफेसर डॉ. रैमबीमो ओडियो, आदि दृश्य विभाग विभागाध्यक्ष डॉ. ऋचा नेगी इत्यादि इत्यादि के सानिध्य तथा उत्तराखंड के गढ़वाल, कुमाऊं व जौनसार अंचल से आए अनेकों प्रबुद्ध जनों, दिल्ली एनसीआर में प्रवासरत व विभिन्न संस्थानों व संस्थाओं में कार्यरत प्रोफेसरों, डॉक्टरों, सेवा निवृत शीर्ष अधिकारियों, साहित्यकारों, पत्रकारों तथा रंगकर्म के क्षेत्र में राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त विभूतियों, लोकगायक व गायिकाओं तथा पर्वतीय कला केंद्र से जुड़े वरिष्ठ रंगकर्मियों की प्रभावी उपस्थिति में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के उमंग कॉन्फ्रेंस हाल में आयोजित किया गया।
आयोजित संगोष्ठी शुभारंग पर्वतीय कला केंद्र व इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के शीर्ष पदाधिकारियों व विभागाध्यक्षों द्वारा दीप प्रज्वलित कर किया गया। पर्वतीय कला केंद्र उपाध्यक्ष व वरिष्ठ रंगकर्मी चन्द्रा बिष्ट एवं संस्था महासचिव चंदन डांगी द्वारा खचाखच भरे कांफ्रेंस हाल में उपस्थित सभी प्रबुद्ध जनों व वक्ताओं का स्वागत अभिनन्दन कर आयोजित संगोष्ठी के उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया। केंद्र के संस्थापक स्व. मोहन उप्रेती के योगदान तथा केंद्र के द्वारा विगत छह दशकों की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फलक पर मिली उपलब्धियों को संक्षिप्त रूप में वृत्त चित्र के माध्यम से प्रदर्शित किया गया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र जनपद संपदा विभाग विभागाध्यक्ष प्रोफेसर के अनिल कुमार द्वारा अवगत कराया गया, उनके संस्थान द्वारा उत्तराखंड की राक साइट्स पर काम किया गया है, उत्तराखंड की रामलीला का मंचन, रामायण तथा रामण प्राचीन लोकनाट्य पर भी आईजीएनसी ने डॉक्यूमेंटेशन तैयार किया है। साथ ही उत्तराखंड की संस्कृति तथा हिलजात्रा पर भी उनके संस्थान द्वारा काम किया गया है।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र आदि दृश्य विभाग विभागाध्यक्ष डॉ. ऋचा नेगी द्वारा उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के विभिन्न स्थानों पर आदि मानव द्वारा पत्थर की चट्टानों पर उकेरे गए कला चित्रों पर तथा अंचल में उत्पादित जैविक खाद्य पदार्थों के महत्व पर ज्ञानवर्धक प्रकाश डाला गया। अवगत कराया गया स्थानीय लोगों को उक्त उकेरे गए कला चित्रों व जैविक खाद्य उत्पादों के महत्व का कुछ भी पता नहीं है। अवगत कराया गया, उनके संस्थान द्वारा पत्थरों पर उकेरी गई कला का डॉक्यूमेंटेशन कार्य किया गया है। उत्तराखंड के पारंपरिक लोकगायन की विभिन्न विधाओं पर प्रकाश डाल कर ऋचा नेगी द्वारा ख़ुदेद गायन विधा के संरक्षण व संवर्धन पर भी विचार व्यक्त किए गए। उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के संरक्षण व संवर्धन हेतु चलो पहाड़, हिटो पहाड़, आओ पहाड़ हेतु आह्वान किया गया।
आयोजित संगोष्ठी विषय ‘उत्तराखंड की लोक संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन’ पर प्रमुख वक्ताओं दिल्ली विश्व विद्यालय सेवानिवृत प्रोफेसर (डॉ.) पुष्पलता भट्ट, सेवानिवृत आईआरएस क्रमशः रतन सिंह रावत तथा हीरा बल्लभ जोशी, लोकगायक व संगीतकार विरेंद्र सिंह नेगी ‘राही’, संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्राप्त दिवान सिंह बजेली, हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय श्रीनगर (गढ़वाल) हिंदी विभाग विभागाध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ.) गुड्डी बिष्ट पंवार, गीत-संगीत विशेषज्ञ (डॉ.) कुसुम भट्ट, साहित्यकार व सेवा निवृत हिंदी अकादमी दिल्ली सरकार सचिव (डॉ.) हरि सुमन बिष्ट, संगीत नाटक अकादमी उस्ताद बिस्मिल्लाह खान युवा सम्मान प्राप्त लोकगायिका आशा नेगी, हिंदी निर्देशालय तथा गृह मंत्रालय भारत सरकार सेवा निवृत निर्देशक डॉ. नीलांबर पांडे, मणिपाल अस्पताल वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. गुसाई, वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी, लेखक व ऑल इंडिया रेडियो वाचक पार्थसारथी थपलियाल द्वारा अति महत्वपूर्ण, दूरदर्शितापूर्ण तथा ज्ञानवर्धक विचार व्यक्त किए गए।
उत्तराखंड समाज के उक्त प्रतिभाशाली विद्वानों और विभूतियों द्वारा उत्तराखंड के परिपेक्ष में संबंधित विषय पर संगोष्ठी आयोजित करने हेतु सुविख्यात सांस्कृतिक संस्था पर्वतीय कला केंद्र दिल्ली के प्रयास की सराहना की गई। विगत छह दशकों के कालखंड में निरंतर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन के क्षेत्र में किए गए प्रभावशाली कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। विद्वान वक्ताओं द्वारा कहा गया, अंचल की बोली-भाषा बचा कर ही संस्कृति बच पाएगी। उक्त कार्य अपने घर से ही शुरू करना होगा। अंचल की लोक गाथाए व लोकगीत अपने बच्चों को सुनाए तभी सांस्कृतिक विकास होगा।
जौनसार बाबर जनजातीय संगठन अध्यक्ष, सेवा निवृत आईआरएस रतन सिंह रावत द्वारा वृत चित्र के माध्यम से जौनसार के प्रमुख त्योहारों, खानपान, वेशभूषा, लोकगीत, नृत्यों तथा जौनसार बाबर के इतिहास पर प्रकाश डाला गया। हो रहे पलायन से गांव के गांव खाली होने पर चिंता व्यक्त की गई।
प्रबुद्ध वक्ताओं द्वारा बेबाक होकर कहा गया, उत्तराखंड में घट रही आपदाएं हमारे कर्मों का फल है, उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में पांच सितारा संस्कृति नहीं चलेगी। बारूद से विस्फोट कर सड़के बनाई जा रही हैं, पहाड़ को पहाड़ रहने दें। पुरानी परंपराओं को अपना कर स्थानीय लोगों को रोजगार मिले।
वक्ताओं द्वारा कहा गया, हमारा शब्द कोश समृद्ध है, अंचल की बोली-भाषा को आगे लाए। उसे समृद्ध करे। अंचल के लोकसहित्य पर बहुत काम हुआ है जो सामने नहीं आया है। जितने भी लेखकों ने कार्य किया है उसे आगे बढ़ाया जाए।
कहा गया, उत्तराखंड में अनेकों समस्याएं हैं, उत्तराखंड की संस्कृति अति समृद्ध है, उसका इतिहास है। जो संस्कृति दिल्ली एनसीआर में देख रहे हैं वह पहाड़ी अंचल में नहीं है। कहा गया, हमारी संस्कृति को शिल्पकारों ने बचाया है। अभी भी पोंगापंथी समाज में व्याप्त है। संस्कृति क्या है यह अपने बच्चों को पता होना चाहिए। बच्चे अंचल की बोली-भाषा बोलते नहीं, अंचल का पहाड़ी खाना खाते नहीं, उन्हें रहन सहन बताना होगा, अपने तीज त्यौहार बताने होंगे, उनका महत्व बताना होगा तभी संस्कृति बचेगी। नहीं तो संस्कृति किसके लिए बचाए।
कहा गया, समय के साथ जो परिवर्तन होना चाहिए था वह नहीं हुआ। वर्ष 1990 के बाद संस्कृति पर ज्यादा प्रभाव पड़ा है। हमें इस पर गंभीरता से चर्चा करनी होगी। बोली-भाषा को बेसिक शिक्षा में शामिल किया जाए। समय के साथ बदल लेखन में बदलाव जरूरी है। लोकगीत संगीत बाद का शिक्षण कार्य है, अब डिजिटाइजेशन करना जरूरी है। कहा गया, पहाड़ से जो जैविक सामान आ रहा है बहुत महंगा होता है। उत्पाद मंडी में आए, उन्हें संरक्षण मिलना चाहिए। चकबंदी उत्तराखंड में जरूरी है। नाटकों में जागर और शराब का मंचन नहीं होना चाहिए।
उत्तराखंड में भ्रमण कर रहे प्रवासी पर्यटक जो होटलों व रिजॉर्ट में ठहरते हैं उनके मनोरंजन के लिए अंचल के चयनित कलाकरों के कार्यक्रम आयोजित कर अंचल की संस्कृति का प्रचार तथा कलाकारों की आजीविका चल सकती है। कार्यक्रम जो प्रस्तुत हों वे उत्तराखंड के लोकगीत, संगीत, बोली-भाषा व संस्कृति के शुद्ध रूप से जुड़े हुए हो।
कहा गया लोकगीत, संगीत व नृत्य में बदलाव समय के अनुकूल होता रहता है। एक कालखंड में कुछ तो दूसरे कालखंड में वह रहे संभव नहीं है। अवगत कराया गया, विगत कालखंड अंचल में तीन हजार के करीब लोक धुनें थी जिनमें से वर्तमान में अधिकतर लुप्त हो चुकी हैं वे संरक्षित नहीं रही। रंगमंच विधा क्या है, ज्ञात होना चाहिए। रंगमंच की कई विधाओं पर अंचल में कार्य नहीं हुआ है। स्व. मोहन उप्रेती के द्वारा बनाई गई लोकधुनों व संगीत को संरक्षित किया जाना चाहिए तथा अन्य पुराने लोकगायकों व वादकों के द्वारा किए गए कार्यों पर भी काम करना जरूरी है।
वक्ताओं द्वारा कहा गया, संबंधित विषय पर संगोष्ठी उत्तराखंड में हो। उत्तराखंड में आयोजित होने वाले मेले साल में एक बार आयोजित होते थे, उनमें लोकगायकों के श्रीमुख से लोकगीत सुनने को मिलते थे, जिन्हें सुनने के लिए वर्ष भर इंतजार करना पड़ता था।
वक्ताओं द्वारा कहा गया, समाज को भेद भाव से ऊपर उठना चाहिए। इंसान से भेद करेंगे तो समाज ऊपर नहीं उठ सकता। कृषि संबंधी सुविधाएं बढ़नी चाहिए। जंगली हानिकारक जानवरों से अंचल के लोगों को मुक्ति दिलाना जरूरी है। कहा गया, जितने विद्वान अंचल से पलायन कर बाहर निकले हैं, दुबारा पहाड़ नहीं गए उन्हें वापसी कैसे कराए यह सोचना होगा। कहा गया, उत्तराखंड के प्रवासी युवा पहाड़ जाए तो होटलों इत्यादि में न ठहर पुश्तैनी गांव घरों में रहे, यह सीख आज के युवाओं को देनी जरूरी है। आंचलिक साहित्य व अन्य माध्यमों से भी युवाओं को प्रेरित करना जरूरी है। प्रवास में रह रहे लोग अपने गांवों को लौटे ऐसी संभावनाओं पर काम करना जरूरी है।
वक्ताओं द्वारा कहा गया, अंचल की लोक संस्कृति व्यापक है, लोगों की जीवन शैली है। गीतों की विभिन्न विधाओं की लोक धुने अपने पुराने प्रारूपों में रहे। कहा गया, बेड़ा समाज के गायन पर किताब लिखी गई, लिपि नहीं बताई गई, लिपि का संवर्धन नहीं हुआ। तालों का ज्ञान जरूरी है। स्वर लिपि लिखना जरूरी है। कहा गया, रागों का प्रयोग सब जगह है। गीतों का संरक्षण हो गया, स्वर लिपि नहीं इसलिए धुनें समाप्त हो गई हैं। गीतों को ताल बद्ध शास्त्रीय मानकों की कटौती पर रखना पड़ेगा।
वक्ताओं द्वारा कहा गया, अंचल की संस्कृति का संवर्धन होना चाहिए, यह पीड़ा भी है। छात्रों द्वारा जो गायन की विभिन्न विधाओं पर शोध कार्य किया जा रहा है सकून देता है। शिक्षा में ट्रेनिंग जरूरी है। अंचल के लोग तकनीकी कार्य नहीं कर रहे हैं, पलायन कर रहे हैं। बाहर के लोग अंचल में तकनीकी कार्य कर रहे हैं। जब लोग अंचल में रहेंगे नहीं तो संस्कृति कैसे बचेगी। शिक्षा रोजगार परक हो। अंचल के प्रवासी आपस में अपनी बोली-भाषा में बात करें। गांव बचेगा तो लोक बचेगा। जागर में भाषा संपदा सबसे ज्यादा है। हमारे देवता लोक देवता हैं। कहा गया, पलायन वरदान भी है, अभिशाप भी है। पलायन उत्तराखंड के लिए भी हुआ है।
पर्वतीय कला केंद्र कार्यकारिणी सदस्य डॉ. के सी पांडे द्वारा संगोष्ठी अध्यक्षता कर रहे संस्था अध्यक्ष सी एम पपनैं के साथ-साथ सभी प्रबुद्ध वक्ताओं, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के उपस्थित सभी विभागाध्यक्षों व अन्य सहयोगियों, संगोष्ठी में बड़ी संख्या में आए प्रोफेसरों, डॉक्टरों, उच्च राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त विभूतियों, रंगकर्मियों, साहित्यकारों व पत्रकारों का संगोष्ठी में उपस्थित होने व सफल बनाने हेतु आभार व्यक्त कर आयोजित संगोष्ठी समापन की घोषणा की गई। आयोजित संगोष्ठी का प्रभावशाली मंच संचालन पर्वतीय कला केंद्र महासचिव चंदन डांगी द्वारा बखूबी किया गया।
———–
Share This Post:-

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *