“वैश्विक फैशन बनाम स्थानीय पहचान: कोल्हापुरी जीआई विवाद”
लेखक – शुभम आर्य
(राजीव गांधी राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, पंजाब)
25 जून 2025 को मिलान फैशन वीक के स्प्रिंग/समर 2026 शो में इटली के विख्यात लक्ज़री फैशन ब्रांड प्राडा द्वारा प्रदर्शित एक विशेष जूता संग्रह ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक अनुचित अपनाने (Cultural Appropriation) और बौद्धिक संपदा अधिकारों की गरम बहस को जन्म दिया है। यह जूते, भारत की पारंपरिक कोल्हापुरी चप्पलों से प्रेरित थे — जिनका वर्ष 2019 में ‘भौगोलिक संकेतक’ (GI) टैग के तहत कानूनी पंजीकरण हुआ था।
भारतीय पारंपरिक हस्तकला से जुड़े कारीगरों और सहकारी संस्थाओं ने प्राडा पर गंभीर आरोप लगाए हैं कि कंपनी ने कोल्हापुरी डिज़ाइन का व्यवसायिक उपयोग बिना किसी पूर्व अनुमति, मान्यता या श्रेय के किया है। यह न केवल GI संरक्षण का स्पष्ट उल्लंघन माना जा रहा है, बल्कि इसे कारीगरों के श्रम व सांस्कृतिक पहचान के दोहन के रूप में भी देखा जा रहा है।
क्या है कोल्हापुरी चप्पलों की विशेषता?
कोल्हापुरी चप्पलें महाराष्ट्र और कर्नाटक के विशिष्ट जिलों – कोल्हापुर, सांगली और बेलगावी – में सदियों से निर्मित की जाती हैं। ये चप्पलें शुद्ध वनस्पति रंगों से रंगे चमड़े से तैयार होती हैं और बारीक हस्तकला की मिसाल हैं। भारत सरकार ने इन्हें 2019 में GI टैग देकर अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान की थी।
भारतीय कारीगर GI अधिनियम, 1999 की धारा 21 और 22 के तहत प्राडा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की तैयारी कर रहे हैं। ये धाराएँ उपभोक्ता को भ्रमित करने वाले अनुचित GI उपयोग और प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाले कार्यों को रोकती हैं। साथ ही, चूंकि भारत और इटली दोनों WTO के सदस्य हैं और TRIPS समझौते के हस्ताक्षरकर्ता भी, इसलिए यह विवाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कानूनी कार्रवाई की संभावना खोलता है।
बात सिर्फ कानूनी नहीं, नैतिक भी है
यह मामला केवल डिज़ाइन की चोरी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक असमानता और निष्पक्ष व्यापार के अभाव का उदाहरण बन गया है। वैश्विक फैशन उद्योग विभिन्न संस्कृतियों से प्रेरणा तो लेता है, लेकिन जब पारंपरिक समुदायों को न श्रेय मिलता है, न मुनाफे में हिस्सेदारी — तब यह प्रेरणा नहीं, शोषण बन जाती है।
यह विवाद भारत के लिए एक अवसर है कि वह अपने GI कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू कर वैश्विक मंच पर सांस्कृतिक और बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करे। मैसूर सिल्क, बनारसी साड़ी, दार्जिलिंग चाय और अब कोल्हापुरी चप्पल – ये सभी हमारे सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक हैं जिन्हें वैश्विक व्यापार और फैशन में समान आदर मिलना चाहिए।
कोल्हापुरी चप्पलों को लेकर उठे इस विवाद ने स्पष्ट कर दिया है कि वैश्वीकरण की रफ्तार में परंपराओं को रौंदा नहीं जा सकता। यह संघर्ष केवल कानूनी अधिकारों का नहीं, सांस्कृतिक सम्मान और ऐतिहासिक उत्तराधिकार की रक्षा का है। ऐसे में ब्रांडों को चाहिए कि वे केवल प्रेरणा न लें, बल्कि पारंपरिक समुदायों के साथ साझेदारी और निष्पक्ष व्यवहार को अपनाएं — तभी वैश्विक संस्कृति सच में समावेशी और नैतिक बन पाएगी।
यह लेख शुभम आर्य द्वारा लिखा गया है, जो राजीव गांधी राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, पंजाब से हैं। उनका यह लेख GI संरक्षण, बौद्धिक संप्रभुता और सांस्कृतिक नीति के समकालीन विमर्श में एक सशक्त हस्तक्षेप के रूप में सामने आया है।