रविवार, शाम का वक्त थोड़ा सा सुकून भरा होता है, क्योंकि मेरे रेलवे अस्पताल की ड्यूटी से राहत रहती है। इसलिए दिन के नैपिंग टाइम को थोड़ा ज़्यादा खींच लेता हूँ। सोकर उठा तो पाँच बज गए थे। हड़बड़ाकर नीचे फ़ोन किया कि क्या हुआ, आज ओपीडी से बुलावा नहीं आया? स्टाफ बोला – “सर, बाहर बारिश हो रही है।”
**बारिश!** मुझे पता ही नहीं चला। शहर में पहली बारिश और हम यहाँ कमरे में पड़े कृत्रिम एसी की हवा में बरसात के विलक्षण आनंद से वंचित। ये बारिश भी न! सबसे ज़्यादा ख़ुशी अगर किसानों को देती है तो उसके बाद मेरे स्टाफ को। क्योंकि बारिश है तो मरीज़ कोई आएँगे नहीं, और बिना कुछ एक्स्ट्रा प्रयास के ही उनकी ढींगामस्ती में चार चाँद लग जाएँगे।
शहर के मकान कुछ इस तरह से बन गए हैं कि पहली बारिश कब हो जाए, कब चली जाए, पता ही नहीं चलता। कमरे की खिड़कियों से मजाल है कि एक हवा का झोंका प्रवेश कर जाए। मिट्टी की भीनी सुगंध, जो पहली बारिश की होती है, वो शहर की पक्की सीमेंटेड सड़कों और नालों से कोसों दूर की बात हो गई है।
पहली बारिश का मज़ा गाँव में था। हम सभी बच्चों को छत पर भेज दिया जाता था, जहाँ पहली बारिश में छत की धुलाई होती थी। साथ ही पहली बारिश में नहाने का मज़ा और गाने का मज़ा – *”इंदर राजा पानी दे, पानी दे गुड़धानी दे।”* हम बच्चे बाहर गलियों में टोली बनाकर गीत गाते हुए, पानी में छपाक-छप करते हुए, कागज़ की नाव तैराते हुए अपने आपको ज़माने के शहंशाहों से कम नहीं समझते थे। आम की बग़ियाओं में दौड़ पड़ते थे, जहाँ पहली बारिश की अमृत बूंदों को पाकर आम बेहद रसीले हो जाते थे। और हम बच्चों को बग़ीचे का रखवाला रामदीन काका दिल खोलकर आम दे देता था!
आजकल के बच्चों को बारिश सिर्फ़ टीवी या मोबाइल पर दिखाई जाती है। बारिश की कुछ बाल कविताएँ बच्चों को रटा दी जाती हैं। बस यही नाता रह गया है बारिश का।
गाँव के कच्चे-पक्के मकानों के आँगन में पानी की बौछारें तन के साथ मन को भी भिगो देती थीं। चौमासे में छत के छज्जे से टपकते पानी का मधुर संगीत आजकल शहर के पक्के मकानों में कहाँ? मकान जो शीशे और पत्थरों से निर्मित एकदम बरसात-रोधी बना दिए गए हैं।
बरसात में टपकती छत और हर बारिश में छत के ऊपर प्लास्टिक की पन्नी बिछाकर कुछ बचाव करना एक नियमित काम था। आजकल तो छत के ऊपर छत रोपकर मल्टी-स्टोरी मकान बना दिए गए हैं—मजाल है कि एक बूँद पानी कहीं से टपक जाए।
ख़ैर, अब बारिश हुई है, वो भी पहली, तो स्वाभाविक है—मेरा मन उमंग से भर गया है। भागा-भागा छत पर गया। तीन मंज़िली छत की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते आधा उत्साह वहीं ठंडा हो गया। जैसे-तैसे पहुँचा कि पीछे से श्रीमती जी आ गईं। बोलीं – “अरे तुम भी! अब कोई उम्र है बच्चों की तरह बरसात में नहाने की? पड़ोसी देखेंगे तो क्या कहेंगे?”
मैंने विनती की – “अरे कोई नहीं! कम से कम ठंडी हवा के झोंकों और बरसात की बूँदों की फुहारें महसूस तो करने दो।”
मैं छत पर देख रहा था—सभी पड़ोसियों की छतें सूनी, कहीं कोई नहीं दिखाई दिया। कोई खिड़की से भी नहीं झाँक रहा था। मैंने एक पड़ोसी को फ़ोन पर पहली बारिश की सूचना दी। मैं चाहता था कोई एक तो हो जो मेरे साथ इस पहली बारिश में नहाने की बेवकूफी करे!
पड़ोसी हँसने लगे, हिकारत से बोले – “अरे डॉ. साहब! छत पर क्या कर रहे हैं? सर्दी लग जाएगी। पिछली बार मेरा बेटा ज़िद कर के नहा लिया, दस दिन तक बीमार पड़ा रहा।”
बस फिर क्या था! आधा बचा हुआ उत्साह भी ठंडा पड़ गया। लेकिन पहली बारिश को *सेलिब्रेट* तो करना ही था। तो मैंने थोड़ा अनुनय-विनय की मुद्रा में श्रीमती जी की तरफ देखा। श्रीमती जी मेरा इशारा समझ गईं। बोलीं – “नहीं, मैं नहीं बनाऊँगी पकोड़े! तुम्हें तो परवाह नहीं, शुगर, कोलेस्ट्रॉल सब बढ़े हुए हैं। डॉक्टर ने मना किया हुआ है, लेकिन फिर भी पकोड़े याद आ रहे हैं!”
मैंने बात सँभालते हुए कहा – “अरे, मुझे नहीं! कम से कम बच्चों को बना दो। मैं तो फीकी चाय पी लूँगा बस। अरे, पहली बारिश हुई है, नीचे मरीज़ भी नहीं हैं, कुछ तो *एंजॉय* करें।”
श्रीमती जी बोलीं – “आ जाइए रसोई में। थोड़ी मदद कर दीजिए, बन जाएँगे पकोड़े भी।”
**लो जी, रसोई में प्याज़ काट रहा हूँ!
पहली बारिश बदल गई है या हम बदल गए हैं—बस यही समझ में नहीं आ रहा!**