‘गिर्दा की याद, गिर्दा के बाद’ अनौपचारिक कार्यक्रम मे बडी संख्या में पहुंचे उत्तराखंड के प्रबुद्धजन

सी एम पपनैं

नई दिल्ली। उत्तराखंड के प्रख्यात जनकवि, संस्कृतिकर्मी, जन आंदोलनकारी, लेखक, जन गायक, स्व.गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की बारहवीं पुण्य तिथि पर, 22 अगस्त की सांय, गढ़वाल भवन के सहयोग से, भवन के एनेक्सी हाल में, ‘गिर्दा की याद, गिर्दा के बाद’ अनौपचारिक कार्यक्रम मे, बडी संख्या में पहुंचे उत्तराखंड के प्रबुद्धजनों द्वारा, ‘गिर्दा’ को उनके चित्र पर गुलाब की पंखुड़िया अर्पित कर, श्रद्धांजलि दी गई।

दिल्ली एनसीआर सहित अन्य विभिन्न शहरो के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, जन आंदोलनकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओ इत्यादि द्वारा बडी संख्या में पहुच कर, ‘गिर्दा’ के व्यक्तित्व व कृतित्व पर सारगर्भित प्रकाश डाल कर, भुवन रावत, मीना कंडवाल, चारु तिवारी, शेखर शर्मा इत्यादि इत्यादि द्वारा ‘गिर्दा’ के जनगीतो को गाकर तथा प्रबुद्ध लेखको द्वारा ‘गिर्दा’ रचित कविताओं व उन पर अन्य लेखको द्वारा लिखे गए गद्य व पद्य का वाचन कर, ‘गिर्दा’ को याद किया गया।

श्रद्धांजलि सभा का शुभारंभ, गिर्दा के जनगीत-
उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मेरी पित्रभूमि।
वो भूमि तेरी जै जै कारा, म्यर हिमाला….।
से किया गया।

गढ़वाल भवन के खचाखच भरे, एनेक्सी हाल मे, चारु तिवारी, व्योमेश जुगराण, प्रेम प्रभा, शेखर शर्मा, हेम पंत, पूरणचंद्र कांडपाल, डाॅ हरीश लखेडा, डाॅ सतीश कालेश्वरी, चंदन मणी चंदन, लक्ष्मी रावत, चंद्र मोहन पपनैं, दिनेश बिन्जवाण, बृज मोहन वेदवाल तथा अजय सिंह बिष्ट द्वारा, ‘गिर्दा’ को सिद्धत से याद कर, उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर सारगर्भित प्रकाश डाल, व्यक्त किया गया, ‘गिर्दा’ कही भी, अपनी कविताओं को गढ़ व व्यक्त कर दिया करते थे। मुखर रूप से गीत उठाने वाले ‘गिर्दा’ के गीत जब तक रहेंगे, तब तक चेतना रहेगी, संवेदना रहेगी। ‘गिर्दा’ को याद करने का मतलब है, एक चेतना को याद करना।

वक्ताओ द्वारा व्यक्त किया गया, ‘गिर्दा’ की प्रासंगिकता आज ज्यादा बढ़ जाती है। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से, सांस्कृतिक, सामाजिक व प्रकृति के असल मायनों को हमारे सम्मुख रखा। ‘गिर्दा’ पहाड़ की जन चेतना के शिखर पर थे, जब वे गाते थे, लगता था, कोई इंकलाब उतर आया है। उनका फलक व्यापक था। व्यक्त किया गया, ‘गिर्दा’ को ‘गिर्दा’ के ढंग से याद किया जाए। उनको जानने के लिए, उनकी पृष्ठभूमि मे जाना जरूरी है। ‘गिर्दा’ के अंदर विद्रोह बचपन से ही था। बचपन से ही उन्होंने, अपना जीवन जनसरोकारों के लिए अर्पित कर दिया था। उनके जन्म के दौरान ही, अनेकों घटनाऐ घटी थी। उन घटनाओं का प्रभाव उन पर पड़ा था। यही कारण था, हर अभावग्रस्त व शोषित व्यक्ति के साथ, ‘गिर्दा’ आजीवन खडे रहे।

व्यक्त किया गया, 1967 कविता संग्रह ‘शिखरों के स्वर’ से ‘गिर्दा’ ने अपनी लेखनी तथा सांस्कृतिक जीवन की शुरूवात लखनऊ से की। एक युवा चेतना जगी थी। 1970 के दौर मे, उन्होंने गीत लिखना शुरू कर दिया था। गौर्दा के ‘जंगल आंदोलन’ से जुड़े गीतों का उन पर प्रभाव पड़ा था। गौर्दा के गीतों को, ‘गिर्दा’ ने गाया भी, उनके आंदोलनकारी गीतों मे अपने शब्दों को पिरो, गीतो को गति दी थी। प्रतिकार की अभिव्यक्तियां ‘गिर्दा’ इसी प्रकार अपने रचित गीतों व कविताओ के माध्यम से, प्रकट करते रहे थे। व्यक्त किया गया, उनके लिखे गीतों की चिंता को, लोग कितना समझते हैं, यह जानना जरूरी है।

वक्ताओ द्वारा व्यक्त किया गया, ‘गिर्दा’ आंदोलनों मे बेबाक होकर गाते थे। उनका व्यक्तित्व नए समाज के निर्माण की थी। निचले समुदाय के लोगों के उत्थान के लिए उनका संघर्ष, आंदोलन, लेखन, गायन के रूप में देखा जा सकता है। उनके जन गीतों को उनके जीवित रहते हुए भी अंचल का जनमानस गाता था, आज भी गाता है। पहाड़ के सांस्कृतिक उत्थान के लिए वे सदा संघर्षरत रहे। कविता की जुगलबंदी मे गिर्दा व नरेंद्र सिंह नेगी, एक मिशाल के रूप मे जनमानस के सम्मुख रहे हैं। जिस जुगलबंदी को विदेशी भूमि पर भी ख्याति अर्जित हुई। इन दोनों के गीतों की जुगलबंदी, कुमांऊ व गढ़वाल की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता की मजबूती के लिए वरदान साबित हुई।

व्यक्त किया गया, ‘गिर्दा’ के गीत सामूहिक गीत रहे हैं। जब तक न्याय व शोषण पर आधारित व्यवस्था रहेगी, तब तक गिर्दा के गीत, पीड़ित जनमानस को प्रेरणा देते रहैंगे। व्यक्त किया गया, उन गीतो का अब अभाव हो गया है, जो गीत ‘गिर्दा’ के युग के लोग लिखते थे। सरल व्यक्तित्व के धनी व निरंतर आजीवन अपनी लोक संस्कृति, लोगों के अभाव ग्रस्त जीवन के साथ-साथ,
जंगल, नदी बचाओ, नशा नहीं रोजगार दो, उत्तराखंड राज्य आंदोलन इत्यादि के प्रति सजग रह, जो अमिट योगदान ‘गिर्दा’ ने दिया, इस सबसे आज की पीढी को प्रेरणा लेनी चाहिए, यह समझ कर कि, ‘गिर्दा’ सबकी सामूहिक निधि हैं।

वक्ताओ द्वारा व्यक्त किया गया, साहित्य मे भले ही ‘गिर्दा’ को सम्मान नही मिला, ‘गिर्दा’ को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब उनके किए कार्यो पर शोध कार्य, जनमानस के सम्मुख आऐंगे। साथ ही उनके नाम से उत्तराखंड में किसी विद्यालय या अन्य किसी शैक्षिक संस्थान के नाम से, उन्हे याद किया जाने लगेगा।

श्रद्धांजलि सभा के इस अवसर पर गिर्दा के कुछ प्रमुख जन गीतों व कविताओं का भी गायन व वाचन प्रबुद्ध जनों द्वारा किया गया।

…. सारी दुनी छ यो रण भूमि।
हम लडते रया बैणा, हम लडते रौला।

…. सावन सांझ अगास खुला है,
मुश्किल से अमां का चूल्हा जला है।
गीली है लकड़ी, गीला धुवां है, आहा रे, ओहो रे…।

अजी क्या बात तुम्हारी…
तुम्हारी ये खुदगर्जी, चलेगी कब तक,
चलेगी ये मर्जी…।

‘गिर्दा’ की बारहवीं पुण्य तिथि के इस अवसर पर, उत्तराखंड के प्रमुख प्रबुद्ध जनों मे प्रमुख थे, डाॅ प्रयासी, विनोद ढोंडियाल, प्रदीप वेदवाल, अनिल पंत, मोहन जोशी, रमेश घिल्डियाल, महेंद्र लटवाल, राजेन्द्र बिष्ट, डाॅ प्रकाश उप्रेती, सुनील नेगी, खुशाल जीना, खुशाल सिंह बिष्ट, निशांत, भूपाल सिंह बिष्ट, सुनैना बिष्ट, रोशनी चमोली, प्रेमा धोनी, पूजा बडोला, कुसुम चौहान, रमेश कांडपाल इत्यादि इत्यादि। पुण्य तिथि का संचालन वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी द्वारा बखूबी किया गया।
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