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जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र के मूल वाशिंदों की दशा व दिशा

सी एम पपनैं

नई दिल्ली। दिल्ली एनसीआर मे उत्तराखंड के कुमांऊ व गढ़वाल क्षेत्र के प्रबुद्ध प्रवासियों की जनसरोकारों से जुड़ी अनगिनत संस्थाओ के क्रियाकलाप चलते रहते हैं। संख्या क्रम मे जौनसार बावर के जनजातीय क्षेत्र की एक मात्र गठित, बहु प्रतिष्ठित सामाजिक संस्था ‘जौनसार बावर जनजातीय कल्याण समिति, दिल्ली’ का नाम प्रमुख रूप में आता है। उक्त कल्याण समिति के चार सौ चवालीस आजीवन सक्रिय सदस्य जनजातीय मूल क्षेत्र के निवासी हैं। समिति से जुड़े निष्ठावान सदस्य, दिल्ली प्रवास मे अपनी जनजातीय सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण व अधिकारों के रक्षण के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु, समिति अध्यक्ष मातवर सिंह नेगी व सचिव राजेश्वर सिंह के नेतृत्व मे विगत अनेक वर्षों से महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं।

कल्याण समिति के सौजन्य से जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र के दूरस्थ स्थानों पर जरुरत मंद मरीजों के स्वास्थ लाभ हेतु, विगत तेरह वर्षो से निरंतर निःशुल्क चिकित्सा शिविर आयोजित किए जाते रहे हैं। प्राकृतिक व अन्य आपदाओं पर पीड़ित क्षेत्रो में यथासंभव मदद पहुंचाई जाती रही है।

वर्तमान मे बढ़ते भयावह कोरोना संकट में समिति द्वारा, जौनसार बावर क्षेत्र के सोलह स्वास्थ्य केन्द्रों पर स्थानीय जन के लिए आवश्यक सामग्री मे मॉस्क, सेनिटाइजर, साबुन तथा डाक्टरों और सम्बंधित कर्मचारियो के लिए पीपी किट्स, आक्सीजन मीटर, टेम्परेचर मॉनिटरिंग गन, दवाईया इत्यादि, निष्ठा भाव से निरंतर मुहैया करवाऐ जा रहे हैं।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, जौनसारी समुदाय के बच्चों की पैदाइश और परवरिश कही भी, किसी भी, कस्बे, नगर महानगर में हुई हो, उनका अपने पैतृक स्थान से अटूट लगाव बना रहा है। इस समुदाय के लोगों का विश्वास रहा है, चाहे कोई कहीं भी प्रवास मे रहे। कोई भी काम-काज करें। कितना भी कमाएं। अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलना है। अपने समुदाय के प्रति अपनेपन का यह भाव, जौनसारी जनजाति के लोगो को हमेशा अपनी परंपराओ, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान को कायम रखने मे ही सफल नही रहा है, विभिन्न क्षेत्रों मे देश व उत्तराखंड की आन-बान-शान का परिचायक भी रहा है।

देश की आजादी की लड़ाई मे इस जनजाति के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, वीर शहीद केसरी चंद को 24 वर्ष की नन्ही उम्र में 3 मई 1945 को अंग्रेजी हुकुमत ने फांसी पर लटका दिया गया था। इस देश प्रेमी के कर्तव्यो की याद में, प्रतिवर्ष देहरादून चकराता राम ताल गार्डन में इस वीर स्वतंत्रता सेनानी की शहादत दिवस पर भव्य मेले का आयोजन दशकों से किया जाता रहा है। इस जनजाति के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों मे केदार सिंह, फुनकू दास, कलीराम, कालू सिह, मदन सिंह, गुलाब सिंह, रूपराम, सेवक सिंह, देव मित्र, खेमचंद, मिल्की राम इत्यादि का नाम भी इतिहास के पन्नो मे दर्ज है। देश को मिली आजादी के पश्चात, देश की संप्रभुता की रक्षा हेतु शहीद हुए जनजाति क्षेत्र के जांबाज वीर सिपाहियों में सुरेश तोमर, शूरवीर तोमर, टीकम सिंह, इत्यादि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। भारत चौहान द्वारा 2013 मे रचित पुस्तक ‘जौनसार बावर की दिवंगत विभूतियां’ में इनका विस्तृत वर्णन किया गया है।

भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग के अनुसार पितृ सत्तात्मक, संयुक्त परिवार प्रथा वाली यह हिंदू धर्म को मानने वाली चार भाई महासू पूज्य देव बोठा, पवासी, चालदा व वासिक देवता को मानने वाली जनजाति देश की प्राचीन जनजाति मे स्थान रखती है। पीढी दर पीढ़ी चली आ रही संयुक्त परिवार परिपाठी के अन्तर्रगत इस जनजाति मे संपत्ति बंटवारे की प्रथा का चलन अब तक नही है। उक्त परंपरा ने इन जनजाति कुटुम्बो को आधुनिक काल मे भी, एक डोर मे बांधे रखा है। अनेक कुटुम्ब परिजनों की संख्या सत्तर व नब्बे तक है। विवाह प्रायः जल्दी हो जाते हैं। अराध्य देव के निर्मित मंदिरो मे दर्जनों गांव के लोगो द्वारा सामूहिक रूप में भव्य कार्यक्रम पौराणिक काल से आयोजित करने की परिपाठी आज भी निरंतर चलायमान है।

भौगोलिक दृष्टि से जौनसार-बावर दो भागो मे विभक्त हैं। ऊपरी भाग को बावर तथा निचले भाग को जौनसार कहा जाता है। इस जनजातीय क्षेत्र के गांव प्राकृतिक सौंदर्य के प्रतीक हैं। विडंबना रही, यह क्षेत्र बाहरी दुनिया और अन्य समाजो से कई सदियों तक कटा रहा। कारणवश यहां की अनूठी सामाजिक व सांस्कृतिक परंपराये अभी तक कायम रही हैं।

जौनसार बावर में कुछ ऐसी अनूठी संस्कृति और परंपराऐ हैं, जो इस जनजाति क्षेत्र को अन्य समाजों से अलग करती है। भाषा-बोली, रीति-रिवाज, संस्कृति, खानपान, रहन-सहन, वेश-भूषा ही नहीं बल्कि, यहां के लोगों के जीने का अंदाज भी जुदा है। मेहमानों की निष्ठा पूर्वक आवाभगत करना इस समुदाय की स्मृद्ध संस्कृति का परिचायक रहा है। अतिथि देवो भवः की परंपरा वर्तमान में भी कायम है। तीज-त्यौहार से लेकर, खुशी का एक पल भी, इस समुदाय के लोग गवाना नही चाहते।

सांस्कृतिक कार्यक्रम सामुदायिक रूप से गांव के पंचायती आंगन में आयोजित किए जाते हैं। हारुल, रासौ, धूमसू, झेन्ता, तान्द, बारदा, नाटी, पांडव नृत्य मे अदभुत सम्मोहन है। हारुल लोकगीत मे तांदी नृत्य लगभग आयोजित आयोजनों में प्रदर्शित किए जाने का रिवाज है। इस नृत्य की विषय वस्तु पांडवो के जीवन पर आधारित है। वर्ष में एक बार पांडव पूजा इस जनजातीय समुदाय द्वारा जरूर की जाती है।

हनौल जौनसारी जनजातीय समुदाय का प्रमुख तीर्थ स्थल है, जहां पर इनके आराध्य महासू देवता विराजमान हैं। जौनसारी समुदाय के मुख्य त्योहार बिस्सू (बैसाखी), जागडा, पांचौ (दशहरा), दियाई (दीपावली), नुणाई, मरोज (माघ मेला) इत्यादि हैं। उत्सवो मे ये लोग वेशभूषा मे थलका या लोहिया पहनते हैं, जो एक लंबा कोट होता है। नृत्य करने वाले लड़के-लड़कियां रंगीन पोशाक पहनती हैं। माघ मेला जोनसारियो का महत्वपूर्ण पर्व है।

पलायन की मार से यह जनजातीय क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा है। आंकड़ो के मुताबिक करीब तीस फीसद मूल निवासी इस जनजाति क्षेत्र से पलायन कर चुके हैं।जिसका प्रभाव इनकी लोकसंस्कृति पर पड़ रहा है।

परंपरानुसार इस जनजाति मे कुटुम्ब के सबसे बड़े पुत्र का विवाह पुश्तैनी जनजातीय गांव मे ही निर्वहन किए जाने की परिपाठी अब तक चलायमान है। जिसका परिपालन इस जनजाति का प्रवास मे जा बसा प्रत्येक कुटुम्ब करता है। शादी बहुत खास और भव्य रूप में आयोजित की जाती है, जिसे स्थानीय बोली मे ‘बारिया का जोजोड़ा’ या ‘आग्ला जोजोड़ा’ कहा जाता है। विवाह मे न केवल गांव बल्कि पूरे ‘खत’ को विवाह उत्सव हेतु आमंत्रित किए जाने की परिपाठी चलायमान है।

प्रचलित विवाह प्रणाली को स्थानीय बोली में ‘जोजोड़ा’ कहा जाता है, जिसमे दुल्हन की ओर से ग्रामीण और रिश्तेदार दूल्हे के गांव ‘जोजोड़िये’ (बाराती) के रूप में जाते हैं। शादी के दिन दूल्हे पक्ष से पांच लोग आते हैं। व्याह के दौरान गांव की मर्यादा, प्रतिष्ठा व सम्मान हेतु प्रत्येक ग्रामवासी जिम्मेवारी निभाने हेतु आपसी तालमेल बना कर रखते हैं।

जनजातीय विवाह प्रथा मे कई रस्में और परंपराएं हैं, जो इस शादी के लिए विशिष्ट हैं। ‘रैणिया जिमाना’ भी इनमे एक रश्म है। गांव के पुरुषों से विवाह करने वाली महिलाओं को ‘रैणिया’ कहा जाता है। ‘सुंवार बियाई’ या ‘रुसुंवार बियाई’ रश्म मे ‘सुंवार’ वे सभी होते हैं, जो विवाह के प्रबंधन में लगे होते हैं।

नृत्य-संगीत जौनसारी विवाह उत्सव का एक अभिन्न अंग है। हारुल, झेंता ,रासो आदि इस जनजाति के कुछ प्रसिद्ध लोक नृत्य हैं। अधिकांश नृत्यों में, महिलाएं और पुरुष दो अलग-अलग अर्ध-मंडलियों में एक दूसरे का हाथ पकड़, पैरों का तालमेल बना, एक साथ गीत गाते चलते हैं। नृत्य स्थानीय वाद्ययंत्रों ढोल, दमाणा, रणसिंघा की गूंज मे, पंचायत-आँगन में किए जाते हैं। शादी के अगले दिन दूल्हे के गांव के आंगन में दूल्हे और दुल्हन को जौनसारी पारंपरिक हारुल लोकगीत पर नचवाया जाता है। जोजोड़िये और दूल्हे पक्ष के लोगो में जौनसारी नृत्य का रोमांचक मुकाबला उत्साह व उमंग भरा होता है।

बदलते समय की आपाधापी में इस जनजाति के विवाह संस्कारो में भी नई प्रवर्तिया उपजती देखी जा रही हैं। शोरगुल से सराबोर डीजे गीत-संगीत इस जनजातीय समुदाय की वर्तमान पीढ़ी को प्रभावित कर, अपनी पारंपरिक गीत-संगीत व नृत्य विधा के चलन को अलविदा कहने को उतारू दिख रही है। युवा पीढी का यह मिजाज जौनसारी समुदाय के बुजुर्गो के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। प्राचीन वाद्ययंत्रों को बजाने व सीखने की पारंगता धूमिल हो रही है।

वर्तमान में बहुत ही कम लोग बचे हैं, जो पुराने गीत-संगीत व वाद्ययंत्रों के साथ-साथ पारंपरिक नृत्यो मे दिलचस्पी ले रहे हैं। समाज का वह वर्ग जो इन वाद्य यंत्रों को बजाने व जनसमूह को संगीत की धुनों पर थिरकाने व झुमाने मे पारंगत रहा है, इनकी आर्थिक स्थिति सदा दयनीय रही है। जाति व्यवस्था के कारण ये लोग अभी भी समाज में असमानता का सामना कर रहे हैं। पारंपरिक लोक वाद्यो के मशाल धारकों को, जो इस लोककला के वास्तविक आदर के पात्र हैं, न तो इन्हे वह सम्मान मिलता है, न ही वह प्रशंसा, जिसके ये हकदार हैं। हास की कगार पर खड़ी इस लोककला व वाद्ययंत्रों के संरक्षण व संवर्धन पर जनजाति के बुजुर्गों की चिंता लाजमी है।

नगरों व महानगरो मे जन्मी, जनजाति की वर्तमान पीढी को अपनी पौराणिक विवाह प्रथा से मिलने वाला वह सकून जो उनके बाप-दादाओ को मिलता रहा है, उसकी प्राप्ति नही हो रही है। कारणवश इस युवा पीढ़ी की दिलचस्पी पुराने रीति-रिवाजों से हटने लगी है। परन्तु जनजाति की युवा पीढी भूल कर रही है, उनकी यह प्रथा ऐतिहासिक दृष्टि से अद्भुत और अनोखी है, जो जौनसारी समुदाय द्वारा पारंपरिक तौर तरीकों से विकसित, संरक्षित व समृद्ध होती आई है। जो वर्तमान में मे भी जौनसारी सांस्कृतिक परंपराओं की पारंपरिक झलक देती नजर आती है। जौनसारी सु-विख्यात लोकगायक रतन सिंह ‘जौनसारी’ व युवा गायक सनी दयाल के रचे-गाए गीत-संगीत मे, जिसमे तन्मय होकर इस जनजाति के लोग उमंग व उत्साह के साथ गाते व नृत्य करते नजर आते हैं।

लघु हिमालय का उत्तर पश्चिम जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र अत्यधिक दुर्गम क्षेत्र है, जिसके कारण यहां का दैनिक जीवन बहुत ही कठिन है। यह क्षेत्र देहरादून जनपद की कालसी, चकराता एवं त्यूणी तहसीलों के अंतरगत आता है। परिस्थितियों में परिवर्तन के फलस्वरूप जौनसारी समाज में काफी परिवर्तन आया है। बावजूद इसके, जौनसारी महिलाओं का अपनी पारंपरिक संस्कृति को संरक्षित करने में बहुत बड़ा योगदान रहा है। वर्तमान मे भी ये जनजातीय महिलाऐ, क्षेत्र की संस्कृति व परम्पराओ की वाहक हैं।

जौनसारी समुदाय में महिलाओं को काफी सम्मान और आदर दिया जाता है।
मेहनतकश इस जनजाति की महिलाओं मे सामाजिक रोक-टोक कम ही नजर आती है। आमतौर पर किसी भी परिवार की महिलाएं दूसरे परिवार की शादी में शामिल नहीं होती हैं, जब तक कि उन्हें बहुत सम्मान और आदर के साथ आमंत्रित न किया जाए। दावतों मे महिलाएं पारंपरिक घाघरा-कुर्ती और ढॉटू पहन, शामिल होती हैं। खान-पान, वेश-भूषा, उत्सव, मेले, त्यौहार, नृत्य, आभूषणों के माध्यम से वे अपनी पृथक पहचान को कायम रखे हुए हैं। जौनसार बावर की महिलाओं की सामाजिक स्थिति तथा उनके द्वारा अपनी संस्कृति और परंपरा के संरक्षण मे सहभागिता जो इस समुदाय की पहचान है। अपनी परम्पराओं व मान्यताओं को कालांतर से पीढी दर पीढ़ी हस्तांतरित कर रही हैं।

जौनसार बावर मे किसी भी विवाद का निपटारा गांव की भरी पंचायत (खुमरी) में ‘लोटा-नमक’ करने के बाद गांव के स्याने की उपस्थिति मे किया जाता है। लोगों मे विश्वास व्याप्त है, वायदे से मुकरने पर महासू देवता के कूपित होने व उलंघन करने वाले परिवार का सात पीढ़ियों तक विपत्तियां झेलते हुए, परिवार का अनिष्ट हो जाता है। आज के दौर मे, कही भी ऐसी लोक संस्कृति पर अटूट विश्वास आधारित न्याय देखने को नही मिलता है, जो अदभुत है।

कृषि एवं पशुपालन से जुड़े जौनसारी समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए समय-समय पर सरकार द्वारा अनेक प्रावधान किए गए। 1956 मे जमींदारी भूमि सुधार अधिनियम बनाया गया, जो 1961 मे क्रियान्वित हो पाया। 1967 में केंद्र सरकार द्वारा जौनसार बावर क्षेत्र की अति विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक व्यवस्था, गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन व विकसित समाज की मुख्यधारा से पृथक रहने के कारण इस क्षेत्र को अनुसूचित जनजाति क्षेत्र घोषित किया गया। 1976 मे बंधुवा मजदूरी निवारण अधिनियम के पश्चात इस जनजातीय क्षेत्र के कोलता, दास और बाजगी जैसे पिछड़े समाज के लोगों की स्थित मे सुधार लाने का प्रयास किया गया। तत्कालीन समय, इस जनजातीय क्षेत्र मे बीस हजार से अधिक बंधुआ मजदूरो की संख्या हुआ करती थी। जनजाति के लोगों को राजनैतिक प्रतिनिधत्व देने की पहल के तहत, देहरादून जनपद में विधायक की एक सीट आरक्षित की गई।

उक्त प्रावधानों के लागू होने व शिक्षा के प्रचार-प्रसार के पश्चात देश-दुनिया से सदियों तक कटे रहे, इस जनजाति क्षेत्र के लोगों को विभिन्न मदों मे लाभ का अवसर तो मिला, परंतु स्मृद्ध सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत को यथावत न रख पाने के कारणवश, अपूर्णीय क्षति भी उठानी पड़ी है। बढ़ते पलायन के कारणवश पारंपरिक पशुपालन व खेती-किसानी पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। बीपीएल कार्ड पर सस्ता राशन मिलने से लोगों ने खेती-किसानी व पशु पालन मे श्रम करना छोड़ दिया है। पलायन की जद मे आकर पढ़ी-लिखी, भोली-भाली प्रवासी युवा पीढ़ी पर बाहरी संस्कृतियो का कु-प्रभाव पड़ने से, जौनसारी बोली-भाषा के साथ-साथ स्थानीय लोकगीतो, लोकनृत्यो, लोककथाओ व प्राचीन विधाओ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

निष्कर्ष स्वरूप वैश्विक फलक पर जौनसार बावर की प्रतिष्ठित स्मृद्ध सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत पर पहचान का संकट मंडराने लगा है। विश्वास व्यक्त किया जा सकता है, इस पौराणिक व ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत को भविष्य में सिर्फ इस जनजाति की युवा पीढ़ी विकास की सोच के तहत, समन्वय बना, सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षा व संरक्षण देकर स्थापित रख सकती है, अपनी निष्ठा व विवेक के बल।

(नोट- पूर्व मूल लेख मे श्री भारत चौहान का नाम गलती से शहीद मे व अराध्य देव चालदा महाराज का नाम चोदला प्रकाशित हुआ है। पाठको से क्षमा याचना सहित, गलती सुधार, लेख पुनः प्रकाशित है।)
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