उत्तराखण्डराज्य

उत्तराखंड मे उत्पादित औषधीय धनिये पौंधे ने गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्डस मे दर्ज होने की ओर बढ़ाए कदम

सी एम पपनैं

बिल्लेख (रानीखेत)। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल मे बागवानी उद्यम विकास मे आधुनिक तकनीक के बल अब्बल प्रजाति के सेव उत्पादन के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित कर चुके अल्मोड़ा जनपद ताड़ीखेत विकास खंड के बिल्लेख गांव के केवलानंद उप्रेती के पुत्र गोपाल दत्त उप्रेती ने अपने व्यक्तिगत प्रयासो के बल अपने बिल्लेख गांव स्थित सेव बगान में पांच फुट सात इंच ऊंचे तथा अच्छी-खासी चौड़ाई लिए औषधीय धनिये के पौंधे जैविक विधि से उत्पादित कर, कृषि उघम के क्षेत्र मे नई क्रान्ति की अलख जगा दी है। उक्त पौंधों का वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए 21 अप्रैल को विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान अल्मोड़ा के वैज्ञानिक डॉ गणेश चौधरी द्वारा उत्पादित पौंधों का निरीक्षण कर इसकी पुष्टि की गई है। उक्त धनिये के पौंधों की लंबाई व उनके फैलाव को देख कर कयास लगाया जा रहा है, जल्दी ही गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड तथा लिम्का बुक ऑफ रिकॉड्स में इस आश्चर्य चकित कर देने वाली उपलब्धि को स्थान मिल सकता है।

आईसीएआर वैज्ञानिक डॉ गणेश चौधरी व उत्तराखंड के चीफ हॉर्टिकल्चर आफिसर टी एन पांडे के मुताबिक औषधीय गुणों से युक्त तथा पाचन तंत्र को मजबूत करने वाला अम्बेलीफेरी कुल का धनिया पौंधा जिसमे विटामिन ए, सी और के गुणों तथा कैल्शियम, कॉपर, आयरन, कार्बोहाइट्रेड, थियामिन, पोटेशियम, फास्फोरस है, आमतौर पर इस पौंधे की लंबाई दो से चार फुट तक देखी जाती रही है। पहली बार पांच फुट सात इंच पौंधे की पैदावार देखी जा रही है। उक्त विज्ञानिकों के अनुसार उत्पादित आश्चर्य चकित कर देने वाले इन पौंधों की ऊंचाई छह फुट से ऊपर जा सकती है।

उक्त विलक्षण उपलब्धि पर उघमी गोपाल उप्रेती को कृषि व बागवानी विभागों से जुड़े उच्च अधिकारियों सहित उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, क्षेत्रीय सांसद अजय टम्टा, अजय भट्ट के साथ-साथ उत्तराखंड के उघम विकास से जुड़े अनेकों प्रबुद्ध जनों द्वारा बधाई प्रेषित की गई है। कृषि क्षेत्र मे हुए इस विलक्षण कार्य का अवलोकन कर राज्य के उद्यान विशेषज्ञयो, वैज्ञानिकों और स्थानीय काश्तकारों के बीच एक प्रेरणादायी उदाहरण स्थापित हुआ है। साथ ही उद्यम विकास मे संघर्षरत अन्य अनेकों उद्यमियो का ध्यान भी आकर्षित हुआ है।

उघमी गोपाल उप्रेती द्वारा उक्त उपलब्धि का प्रत्यक्ष अवलोकन करने तथा इस पैदावार को डाक्यूमेंटेशन कराने के लिए गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड तथा लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स से सम्बंधित अधिकारियों को पत्र भेज आमंत्रित किया जा चुका है।

मिली उपलब्धि तथा 70 नाली जमीन मे बनाए गए इस सेव बगान मे पर्याप्त मात्रा में वर्षा जल संग्रहण से इस उद्यमी की भावी योजनाओ को भी बल मिलने लगा है। सेव उत्पादन के अतिरिक्त निर्मित बगान में सब्जियों मे ब्रोकली, कैप्सिकम, लेमनग्रास के साथ-साथ फ्लोरीकल्चर, मिंट, तुलसी, लहसुन इत्यादि का उत्पादन करने की योजना इस उद्यमी द्वारा बनाई गई है। केल, लहसुन, मटर, लाई, मेथी, सरसों का उत्पादन यह उद्यमी शुरू कर चुका है। विगत वर्षों मे पहाड़ी ककड़ियों (खीरे) की भारी मात्रा मे उत्पादन कर यह उद्यमी अच्छा-खासा लाभ अर्जित कर, स्थानीय निराशावादी काश्तकारों के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत कर चुका है।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के जनमानस का दुर्भाग्य रहा है, उद्यम तकनीकी ज्ञान के अभाव में छोटे-मोटे रोजगार की तलाश मे अपने पुश्तैनी मकान खंडहर, खेत-खलिहान बंजर तथा प्रकृति के रमणीक सौन्दर्य व स्वच्छ पर्यावरण को छोड़ लोग गांव के गांव खाली कर नगरों व महानगरों को पलायन करने को विवश हुए हैं।

विषम भौगोलिक परिस्थितियों में स्थानीय स्तर पर युवाओं में बागवानी, कृषि, साग-सब्जी, मसाले, फूलों इत्यादि से जुडी तकनीकी दक्षता की ललक पैदा कर, उनकी सोच बदल, अंतरमन मे आत्मविश्वास पैदा कर, उन्हे उघमी गोपाल उप्रेती की तरह उद्यमता विकास की ओर अग्रसर कर, पलायन व बेरोजगारी जैसी जटिल समस्याओं से निदान दिलवाया जा सकता है, जिसमे सरकार की आर्थिक नीतियों व आर्थिक मदद अहम हो सकती है।

उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए मातृशक्ति व युवाओ ने शक्ति झोंकी। अनेकों राज्य आंदोलनकारियों ने शहादत दी। इस उद्देश्य से कि राज्य गठन के बाद पर्वतीय अंचल विकास के पथ पर अग्रसर होगा, क्षेत्र के वाशिन्दो को जटिल समस्याओं व अभावो से मुक्ति मिलेगी।

दुर्भाग्य! समस्याओं व अभावो के ज्वलंत प्रश्न आज भी यथावत हैं। राज्य कल्पनानुसार नही बन पा रहा है। राज्य के संसाधनों का दोहन राज्य स्मृद्धि मे होता नही दिख रहा है। नए राज्य की कल्पना प्रश्न बनी हुई है। भूमि व जंगल के काले कानून, चकबंदी न होने तथा जंगली जानवरों के बढ़ते उत्पातो से जटिल पहाडी खेती-किसानी से लोगों का अलगाव होने के कारणवश खेती बंजर, गांव खाली तथा मकान खंडहर होते जा रहे हैं, जो सोचनीय है। राज्य की दयनीय स्थिति बनी हुई है।

उघमी गोपाल उप्रेती की तरह उत्तराखंड मूल के अन्य बहुत से प्रवासी उद्यमियों के प्रयास से व्यवसायिक जागृति, स्वरोजगार से संसाधनों के संवर्धन तथा अन्य उद्यमिता विकास के माध्यम से भविष्य में पर्वतीय क्षेत्र को विकास की दौड़ में अग्रसर कर, अंचल के लोगों को दयनीय स्थिति से उबार, उसके स्वरूप को बदलने की कोशिश जरूर की जा रही है, परंतु प्रदेश में स्थापित रही पक्ष-विपक्ष की सरकारो व नीति निर्माताओं की उदादीनता सदा आड़े आने से, उनका सहयोग न मिलने से उत्तराखंड विकास की दौड़ में काफी पिछड़ता चला गया है। स्मृद्ध राज्य की कल्पना खोखली हो गई है। पलायन और सिमटती खेती ने पहाड़ की अर्थव्यवस्था को धरासाई कर दिया है। कई गांव छोड़ चुके हैं, कई खेती। पिछले कुछ सालों में चार किसानों ने आत्महत्या भी कर डाली है।

उक्त तथ्यों पर 2018 मे संज्ञान ले उत्तराखंड उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश राजीव शर्मा और मनोज तिवारी की बेंच ने प्रदेश के 226950 किसानों द्वारा पर्वतीय क्षेत्र से पलायन करने व बदहाल होती खेती-किसानी के हालात पर चिंता जता एक आदेश मे कहा था, ‘वह समय आ गया है, जब उत्तराखण्ड के किसानो के अधिकारों को मान्यता देते हुए अब तक चली आ रही पूरी प्रक्रिया को उलट देना चाहिए’।

सर्वविदित है, उत्तराखंड के पहाड़ी भू-भाग मे मौजूद खेती की जमीन लगातार सिकुड़ कर केवल पांच-छह फीसद शेष रह गई है। उसमे भी पीढी दर पीढ़ी बटवारे के चलते जोत सिमट कर न्यूनतम रह गई है। अस्सी फीसद भू-भाग या तो बंजर है या उसको दूसरे कार्यो मे प्रयुक्त किया जा रहा है। राज्य बनने के बीस वर्षो बाद भी न ही स्वैछिक और न ही सरकारी प्रयासो से चकबंदी हो पाई है। जबकि जिस उत्तर प्रदेश से राज्य पृथक हुआ था, उस राज्य मे चकबंदी कार्य कब का पूर्ण हो चुका है। काश्तकारों की खेती-किसानी फलफूल रही है।

राज्य स्थापना के बीस वर्ष बाद भी प्रदेश की सरकार को जमीन की स्थिति क्या है, के बावत पता ही नहीं है, जिस पर नीति बनाई जा सके। दुर्भाग्य है, पिछले छह दशकों से कोई भूमि बंदोबस्त नही हुआ है। जिसे नियमानुसार प्रत्येक बीस वर्षो के उपरान्त निपटा लिया जाना चाहिए। पलायन आयोग के मुताबिक उत्तराखंड में 2011 की जनगणना के बाद से 2018 तक 734 गांव पूरी तरह जनसंख्या शून्य तथा 565 गांवो की जनसंख्या पचास प्रतिशत से कम हो गई थी। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। गांवो मे बचे-खुचे जनमानस में नब्बे प्रतिशत कृषि पर निर्भर हैं।

प्रदेश के राजस्व विभाग के अनुसार राज्य गठन 9 नवंबर 2000 को राज्य में 776191 हैक्टेयर कृषि भूमि थी, जो अप्रैल 2011 मे 53027 हैक्टेयर कम होकर मात्र 723164 हैक्टेयर रह गई थी। आंकड़ो के मुताबिक प्रति वर्ष खेती योग्य जमीन औसतन 4500 हैक्टेयर कम हो रही है, जिसमे 95 फीसद कृषि योग्य भूमि वर्षा आधारित है।

वर्तमान में सरकारी आंकड़ो के मुताबिक उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले को सेव उत्पादन में तथा अल्मोड़ा जिले को मसाले व साग-सब्जी उत्पादन में अव्वल माना जाता है। स्वरोजगार व बागवानी उद्यम विकास मे प्रोत्साहन हेतु सरकार पचास लाख रुपया तक भी मुहैया करवा रही है। इसके बावजूद खेती-किसानी से अलगाव के कारणवश लोग आगे नही आ रहे हैं। सरकारी अधिकारियों के मुताबिक, स्वरोजगार व उद्यम विकास हेतु राज्य बजट में जो प्रावधान है, वह राशि काश्तकारों की उदासीनता के कारणवश खर्च ही नहीं हो पा रही है।

उद्यान विभाग से जुड़े अधिकारियों द्वारा दी गई सूचनानुसार उद्यान विकास योजना के तहत जिलो मे अखरोट तथा बादाम के पेड़ तथा बंद पड़े घरों मे मशरूम उगाया जा रहा है। बागानों मे मधुमक्खी पालन को प्रमुखता दी जा रही है, जिससे फल-फूलों व साग-सब्जी के साथ-साथ पर्यावरण पर मधुमक्खी परागण प्रक्रिया के बल सकारात्मक प्रभाव पड़े। बगान मे फलों को ओलों से बचाने के लिए जाल लगाने हेतु सरकार अस्सी प्रतिशत की सब्सिडी मुहैया करवा रही है।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, उद्यमी बनना एक व्यक्तिगत कौशल है। जिस हेतु व्यक्तित्व की अहम भूमिका के साथ-साथ सकारात्मक रवैया तथा प्रेरणा की निहायत जरुरत होती है। सामाजिक उघमियो के प्रमुख उद्देश्यों मे एक सामाजिक संगठन के नवनिर्माण और स्वच्छ पर्यावरण निर्माण की भावना भी शामिल होती है। परन्तु उत्तराखंड के पलायन व अभावग्रस्त जटिल पिछड़े क्षेत्रो के काश्तकारों तथा युवाओं की आर्थिक तंगी, जंगली जानवरों का उत्पात तथा चकबंदी का न होना, लोगों की उद्यमिता भावना को बहुत अधिक प्रभावित करती रही है।

वर्तमान मे कोरोना विषाणु संक्रमण की दहशत तथा पूर्णबंदी के कारणवश हजारों की संख्या में उत्तराखंड के प्रवासी युवा अपने छोटे-मोटे रोजगार छोड़ अपने मूल गांवो को लोट आए हैं। सरकार इसको रिवर्स पलायन मान रही है। सोच रही है, अब ये युवा नगरों व महानगरों की ओर वापस न लौटे। अपने खेत-खलिहानों को आबाद करे।

ऐसे में केंद्र व प्रदेश मे स्थापित डबल इंजन की सरकार का दायित्व बनता है, वे मुहैया की जा रही सब्सिडी तक सीमित न रह कर, अंचल के समग्र उद्यम विकास तथा युवाओ के स्वरोजगार हेतु संवेदनशील होकर भूमि बिक्री के कड़े कानून लाकर, चकबंदी जैसे बड़े कदम उठा कर तथा ग्रामीण काश्तकारों द्वारा जटिल परिश्रम से उत्पादित फसलों, साग-सब्जियो तथा फलों को बंदरो, लंगूरों तथा सुअरों द्वारा की जा रही बर्बादी पर लगाम लगाने के प्रबंध कर, लोगों मे कृषि व बागवानी के प्रति विश्वास जगा, उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल को स्वरोजगार व उद्यम विकास के क्षेत्र मे अग्रसर करे। प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाए। इस सबका नतीजा होगा उत्तराखंड मे गोपाल उप्रेती जैसे दर्जनों रिकार्ड तोड़ उघमी पैदा होंगे, जो राज्य व देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती व बेरोजगारो को रोजगार मुहैया करवाने में सहायक होंगे।

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