राष्ट्रीय

मीठे पानी की निरंतर बहती जल धारा चूना धारा 

लेखक आशीष चौहान कोटद्वार। देवभूमि उत्तराखंड स्थित दुगड्डा इस कस्बे का नाम सुनते ही मीठे पानी की निरंतर बहती जल धारा – चूना धारा का सजीव चित्रण मन मे आ जाता है

कुछ बातें बाद मे पहले एक नजर उस वक्त पर डालते हैं जब दुगड्डा का स्वर्ण युग था।

कोटद्वार से दुगड्डा के मध्य सडक बन ही रही थी। उस समय 50-50 ऊंटो का कारवां लगातार बैलगाडी का आना जाना खच्चरों का काफिला निरंतर लगा चलता रहता था। नगीना बिजनौर से रेल आने के बाद कोटद्वार से भी । सब के सब रस्द और महत्वपूर्ण या अन्य प्रकार के सामान लाते रहते थे।उस समय ऋषिकेश की तरफ से मंडी नही थी। ये तो थी मैदानों से आने वाले काफिले की बात दूसरी तरफ पहाडी क्षेत्रों मे जाने वाले काफिले सामानों को लेकर जाने की तैयारी करते थे।

500 -500 की झुण्ड मे भेडो के काफिले जिनमे विशेष चमडे की काठी बंधी होती थी । जो भेड की पीठ मे रखी जाती थी उसमे दोनों तरफ सामान रखा जाता था। 3 से 5 किलो तक का ही भार रखा जा सकता था। ।और जहाँ वर्तमान मे इण्टर कालेज का मैदान है वहा पर बडे बडे अन्न के ढेरों से भार भरके अपने गंतव्य को चल जाते थे। कुछ खच्चरों से कुछ ढाक्करीयो द्वारा भी किया जाता था।

भेडे जोशीमठ तक लगभग 300 किमी तक का सफर तय करते थे।

आज दुगड्डा बजार मे खडे होकर यकीन नहीं होता की कभी यहाँ दिनरात चहल पहल हुआ करती थी ।फिर सडक आगे बढी और स्वर्ण युग गायब हो गया।

जब आजादी की लडाई का अन्तिम दौर चल रहा था ।उस दौरान यह राम सिंह के होटल मे बैठ कर आजादी की लडाई की योजना बनाई जाती थी और बडे स्तर के क्रांतिकारी आते थे। ” चंद्रशेखर आजाद ” उनमें से एक उदाहरण है जिनके अभिन्न मित्र ” भवानी सिंह रावत” रहे

वेसे मुझे जंहा तक तार्किक आधार पर इस जगह की जानकारी मिली उसके अनुसार लगभग1835 ईसवीं के बाद ही ये कस्बा कस्बे के रूप मे आया। चूंकि 16 वी सदी के लेखो मे कोटद्वार का जिक्र मिलता है लेकिन दुगड्डा का नही मिला।

गढ़वाल के राजा के एक वजीर रहे – दास मिश्रा Iजो लगभग 1835 के आस पास चिडियापूर से कोटद्वार के आसपास के क्षेत्रों की देखभाल करते थे।उन्हीं की पीढी के रहे- धनी राम मिश्रा । जिनका इस कस्बे को गति देने मे सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा।धनी राम मिश्रा जी असाधारण व्यक्तित्व के भी धनी थे। उन्हीं के प्रयास से इस क्षेत्र की सबसे पुरानी स्कूल लगूंरी के आसपास खोली गई।वे बहुत ही दयालू प्रवृत्ति के थे। ऐसा भी सुना की रास्ते मे कोई गरीब मिल गया तो अपनी जेब मे रखे सारे रूपय उसे दे देते थे। दुख होता है आज मात्र उनके नाम की याद दिलाता एक छोटा सा बाजार है। जिसका नाम आज भी धनीराम बाजार है।

अगर वर्तमान नगरवासी धनी राम मिश्रा जी की यादों को जीवंत कर उन्हें विशेष सम्मान दे दे तो यह एक बहुत ही नेक कार्य होगा।

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