लोकगीत रसिकों को दीवाना बनाने वाला उत्तराखंड का सुप्रसिद्ध लोकगायक दीवान कनवाल
सी एम पपनैं
उत्तराखंड। पर्वतीय अंचल की लोकगायन विधा के निपुण व सुविख्यात लोकगीत गायकों में सुमार तथा अपनी जादुई कर्णप्रिय गायन प्रतिभा के बल अंचल के जनमानस का दिल जीतने वाले तथा बहुआयामी विलक्षण व्यक्तित्व के साथ-साथ बेहद सरल इंसान के रूप में पहचानरत संस्कृतिकर्मी दीवान कनवाल किसी परिचय के मोहताज नहीं रहे हैं। बाल्यकाल से ही अंचल की लोकसंस्कृति के संवर्धन हेतु समर्पित रहे इस लोकगीत गायक और रचनाकार की जीवन यात्रा आज के युवा रंगकर्मियों और गायकों के लिए अति प्रेरणादायी कही जा सकती है।
अंचल के सुप्रसिद्ध लोकगीत गायक दीवान कनवाल के मधुर गायन में गजब का सम्मोहन है, जिसमें पहाड़ी अंचल के लोक की ठसक साफ तौर पर दिखाई देती है। पर्वतीय अंचल के गीत-संगीत से जुड़े रहे कुशल चितेरो के सुरों की मिठास मिसरी की तरह इस लोकगीत गायक के स्वरों में घुली रहती है जो गीत-संगीत की अलौकिक दुनिया में विचरण कर जनमानस को प्रभावित करती नजर आती है।
मूल रूप से अल्मोड़ा खत्याड़ी गांव निवासी चौसठ वर्षीय दीवान कनवाल ने बाल्यकाल में खत्याड़ी गांव में आयोजित होने वाली रामलीला में अपने पिता स्व.त्रिलोक सिंह कनवाल को हनुमान और ताड़का का अभिनय करते हुए देखा था। पिता के गायन और अभिनय तथा अंचल की पारंपरिक लोकसंस्कृति के प्रति लगाव को देख तथा उससे प्रेरणा लेकर रामलीला में बंदर और बाल्य अंगद का पात्र बन कर रंगमंच में कदम रखा था। अंचल की गेयप्रधान रामलीला में गायन की विविध विधाओं को आत्मसात करने और अभिनय करने का सिलसिला रामलीला मंच से ही आरंभ हुआ था। रामलीला में पहला बड़ा किरदार महिला पात्र मंदोदरी का तथा उसके बाद खर-दूषण तथा परशुराम का निभाने का अवसर मिला था।
अंचल के सुप्रसिद्ध लोकगीत गायक दीवान कनवाल की बेसिक शिक्षा प्राइमरी पाठशाला खत्याड़ी, छठी से बारहवीं तक की शिक्षा रैमजे इंटर कालेज, बीकॉम और एमकॉम कुमांऊ विश्वविद्यालय नैनीताल कैंपस अल्मोड़ा तथा दो वर्ष का कॉमर्शियल डिप्लोमा अकाउंट्स राजकीय पॉलीटेक्निक द्वाराहाट से पूर्ण हुआ। बारहवीं कक्षा में पढ़ने के दौरान आकाशवाणी नजीमाबाद से वर्ष 1980 मेँ पहलीबार इस युवा गायक को लोकगीत गायन का अवसर मिला। पहले ही प्रयास में ‘बी ग्रेड’ गायक का तमगा हासिल करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उत्साहित होकर इस युवा गायक के जेहन में गायन के क्षेत्र में कुछ खास कर दिखाने की तमन्ना जागृत हुई थी।
शिक्षा पूर्ण कर व डिप्लोमा प्राप्त कर दीवान कनवाल को रोजगार की तलाश हेतु वर्ष 1984 में दिल्ली को पलायन करना पड़ा।दिल्ली में ‘रसना’ कंपनी में काम मिला। दिल्ली की 45 डिग्री की गर्मी में रचना साफ्ट ड्रिंक मार्केटिंग का कार्य किया। दरियागंज स्थित एक पंप कंपनी में भी कार्य किया। सायं को कार्य समाप्ति के बाद राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय फलक पर ख्यातिरत सांस्कृतिक संस्था ‘पर्वतीय कला केंद्र’ के मंडी हाउस स्थित तालीम स्थल एलटीजी में गीत नाट्य ‘महाभारत’ और ‘भाना गंगनाथ’ की तालीम में जाकर जानेमाने संगीतज्ञ मोहन उप्रेती से गीत-संगीत, राष्ट्रीय नाट्य विध्यालय निर्देशक बृज मोहन शाह से अभिनय व निर्देशन तथा गीत व नाटक प्रभाग भारत सरकार उप-निदेशक बृजेन्द्र लाल साह से आंचलिक गीत लेखन तथा पूना फिल्म इंस्टीट्यूट निर्देशक प्रेम मटियानी व वरिष्ठ पत्रकार, रंगकर्मी व लेखक चंद्र मोहन पपनै से रंगमंच विधा से जुड़े अन्य अनेकों गुर सीख मंचित गीत नाट्यों में अभिनय और गायन का सौभाग्य प्राप्त किया।
दिल्ली को पलायन करने का मकसद ‘पर्वतीय कला केन्द्र’ जैसी नामी संस्था से जुड़ना भी इस युवा गायक का मुख्य मकसद रहा। सुप्रसिद्ध लोकगायक और संगीतज्ञ मोहन उप्रेती के बाबत इस युवा गायक ने अल्मोड़ा में सुना ही था, उन्हें देखा नहीं था। ‘पर्वतीय कला केंद्र’ से जुड़े गुरुजनों की विद्धता के बाबत जैसा इस युवा होनहार गायक ने सुना था वैसा ही उन्हे देखा भी। उक्त गुरुजनों से रंगमंच की विविध विधाओं की बारीकियों को सीख, उन्हे प्रेरणा स्वरूप आधार बना, आंचलिक गायन और रंगमंच को समृद्ध करने की युवा गायक दीवान कनवाल की सोच को बल मिला।
परिवार में इकलौता होने व पारिवारिक परेशानियों के कारण तीन वर्ष बाद ही इस युवा गायक को अल्मोड़ा घर वापसी करनी पड़ी। दिल्ली आना जाना लगा रहा। आंचलिक फलक पर मिल चुके पहले मेल सिंगर का श्रेय मिलने के उपरांत वर्ष 1984 में निर्मित हो रही पहली आंचलिक कुमांऊनी फीचर फिल्म ‘मेघा आ’ प्रोड्यूसर जीवन सिंह बिष्ट द्वारा उक्त फिल्म में इस युवा गायक की गायन प्रतिभा को परख गाने का अवसर दिया गया। दीवान कनवाल की जिंदगी का यह टर्निंग प्वाइंट रहा। अंचल का जनमानस उक्त फीचर फिल्म के गीत हिट होने से इस युवा गायक को जानने लगा।
फीचर फिल्म ‘मेघा आ’ के गीतों की सफलता के बाद कुमाउनी बोली-भाषा में निर्मित अन्य पांच-छह आंचलिक फिल्मों आईगे बहार, जै हिन्द, बली वेदना इत्यादि इत्यादि में भी गीत गायन का अवसर इस प्रतिभावान युवा गायक को धड़ाधड़ मिले। अजय प्रसन्ना के निर्देशन में निर्मित एल्बम ‘ठाट-बाट’ के साथ-साथ अन्य एल्बमों में ‘हुड़की धमा धम’, ‘सुवा’ इत्यादि के गीत भी बहुत हिट हुए। रिकॉर्डेड लोकगीतों की भरमार व मिली प्रसिद्धि के पश्चात दीवान कनवाल अंचल के लोकगीत गायन के क्षेत्र में एक जानी पहचानी आवाज बन गए। उनके रचे व गाए हर गीत में पहाड़ का प्रतिबिंब झलकता देखा गया।
वर्ष 1990 के बाद पूर्ण रूप से अल्मोड़ा खत्याड़ी में ही रह कर इस लोकगीत गायक ने जीवन यापन हेतु सांझेदारी में कंट्रोल वाली राशन दुकान चलाई। साथ-साथ अल्मोड़ा में गठित सांस्कृतिक दलों ‘युवक मंगल दल’ फलसीमा तथा ‘नेहरू युवा केंद्र’ अल्मोड़ा से जुड़ कर स्थानीय स्तर पर तथा अंचल के अन्य शहरों में जाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम मंचित कर, संस्कृतिकर्मी का धर्म निभाते रहे।
अल्मोड़ा नगर की सुविख्यात रामलीला कमेटी ‘हुक्का क्लब’ से जुड़ कर संगीत की कोई विधिवत तालीम लिए बगैर अपने हुनर का परिचय देकर उक्त क्लब द्वारा आयोजित रामलीला की तालीम में हारमोनियम और तबला वादन किया। पात्रों को गायन और अभिनय के गुर सिखाए। स्वयं दशरथ की प्रभावशाली भूमिका का निर्वाह कर ख्याति अर्जित की।
अंचल के प्रमुख वाद्ययंत्रों हार्मोनियम, हड़का, ढोलक, ढोल, ड्रम तथा तबला बजाने के साथ-साथ गीत-संगीत के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की चाहत में स्थानीय स्तर पर अल्मोड़ा के प्रख्यात गीतकारों व संगीतकारों के गीत-संगीत व गायन विधा का गहराई से अध्ययन, मनन करने का ही प्रतिफल रहा अल्मोड़ा में 25-30 प्रतिभावान कलाकारों को इकट्ठा कर एक सांस्कृतिक संस्था ‘हिमालय लोक कला केंद्र’ की स्थापना दीवान कनवाल द्वारा राजेंद्र बोरा (त्रिभुवन गिरी महाराज) तथा शंकर उप्रेती के सानिध्य में की गई। उक्त संस्था के माध्यम से निरंतर सांस्कृतिक आयोजन कर अंचल के लोकगीत-संगीत तथा नृत्यों के साथ-साथ नाटकों में कलबिष्ट, गंगनाथ, हरुहित, बाइस भाई बफौल, तीलू रौतेली, सरू कुमैण, गणु सुम्याल का मंचन कर ख्याति अर्जित की। उक्त मंचित नाटक अंचल के विभिन्न शहरों में आयोजित प्रतियोगी नाट्य महोत्सवों में प्रथम स्थान प्राप्त करने में सफल रहे। दिल्ली मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर में भी उक्त संस्था द्वारा कार्यक्रम मंचित कर ख्याति अर्जित की।
वर्ष 1995 में पिता की मृत्यु के बाद उनके स्थान पर दीवान कनवाल को जिला सरकारी बैंक अल्मोड़ा में नौकरी मिली। पच्चीस वर्षो तक उक्त बैंक की विभिन्न शाखाओं ताड़ीखेत, रानीखेत, बाड़ेछीना, ताकुला में कार्य किया। नौकरी के दौरान सांस्कृतिक गतिविधियों को जारी रखा। इस दौरान कई गीतों की रचना भी की जो बहुत हिट हुए। उक्त रचित गीतों में–
1- दाज्यु हमार जवाई रिषे ग्ये…।
2- आज कुछे मैत जा…।
3- कस भिड़े कुनई पंडित ज्यू कस करछा ब्या….।
4- ह्यू भरी दाना…।
इत्यादि इत्यादि आंचलिक कुमांऊनी बोली-भाषा के गाने बहुत हिट हुए, अंचल के उत्साही लोगों द्वारा खूब गाए-बजाए गए।
गीत-संगीत की अंचलीय पारंपरिक विधा का ज्ञान और उसका दीवानापन दीवान कनवाल पर उम्र बढ़ते चढ़ते चला गया। अंचल की पारंपरिक लोकगायन विधा में यह संस्कृति कर्मी रमता और परिपक्व होते चला गया। इस लोकगीत गायक के कंठ से गूंजे हृदयस्पर्शी गीतों ने अंचल के लोगों को बहुत प्रभावित किया। सामान्य परिस्थितियों से उठ कर अपनी प्रतिभा, मेहनत व निष्ठा के बल संतोषजनक मुकाम हासिल कर आज की युवा पीढ़ी के गायकों और संगीतज्ञों का चहेता बन व उन्हे अंचल के पारंपरिक लोकगायन विधा के संवर्धन और संरक्षण हेतु प्रेरित करने का जो कार्य दीवान कनवाल द्वारा किया जा रहा है अति प्रशंसनीय व सराहनीय है।
अल्मोड़ा बैंक ब्रांच से वर्ष 2021 में सीनियर ब्रांच मैनेजर पद से सेवानिवृत होने तथा पारिवारिक जिम्मेवारिया पूरी होने के पश्चात दीवान कनवाल पुनः ओलंपिक थिएटर तक का सफर तय कर चुकी ख्यातिरत सांस्कृतिक संस्था ‘पर्वतीय कला केंद्र’ दिल्ली के साथ जुड़ कर अंचल की लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन हेतु पूर्णरूपेण सक्रिय हो गए हैं। वर्ष 2024 में ‘पर्वतीय कला केन्द्र’ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय भारत रंग महोत्सव के समापन दिवस पर आयोजित ‘खड़ी होली’ गायन शैली में तथा केंद्र के गीत-संगीत तथा संवाद आधारित नए नाटक ‘देवभूमि’ में प्रतिभाग कर अपनी गायन प्रतिभा का जलवा दिखा कर दिल्ली एनसीआर के श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने में सफल रहे। 3 जनवरी 2025 को उक्त संस्था द्वारा ‘प्रेस क्लब आफ इंडिया’ के सौजन्य से ‘उत्तराखंड उत्सव’ के तहत आयोजित उत्तराखंड के गीत-संगीत और नृत्य कार्यक्रम में अंचल के पारंपरिक लोकगीत गाकर बड़ी संख्या में उपस्थित देश के मीडिया कर्मियों को प्रभावित कर ख्याति अर्जित की है, उत्तराखंड के पारंपरिक लोकगायन शैली का डंका बजाया है। आगामी मार्च 2025 में ‘पर्वतीय कला केन्द्र’ के गीत-संगीत-नृत्य तथा संवाद आधारित नए नाटक ‘देवभूमि का देव-भूत’ के मंचन में एक प्रमुख गायक किरदार की भूमिका का निर्वाह यह सुप्रसिद्ध लोकगीत गायक निभाने जा रहा है।
अपनी आवाज के जादू से गीत-संगीत रसिकों को दीवाना बना कर रखने वाले दीवान कनवाल ने प्रेरणा तो अनेकों विभूतियों से ली है लेकिन उनका कोई स्थाई गुरु नहीं रहा है। आरंभिक चरण में रामलीला की राग-रागिनियां शिवचरण पांडे से, अभिनय के गुर राजेंद्र बोरा (त्रिभुवन गिरी महाराज) से सीखने का अवसर मिला तथा गीतों की रचनाएं स्वयं की। अपने गीतों के माध्यम से सांस्कृतिक, सामाजिक व प्रकृति के असल मायनों को जन के सम्मुख रखने का प्रयास किया जिनका फलक व्यापक है।
अन्य रचनाकारों जिनकी रचनाओं पर दीवान कनवाल ने गायन किया उनमें प्रमुख रूप से जुगल किशोर पैठशाली, डॉ.दिवा भट्ट, देव सिंह पोखरिया तथा शेर सिंह अनपढ़ इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। पारंपरिक रचनाओं में न्योली, छपेली, झोड़ा, चांचरी, ऋतुरैण इत्यादि लोकगायन की विधाएं बचपन से ही इस लोकगीत गायक के दिलों दिमांग में बैठी रही, उन्हें गाते भी रहे हैं। बैर, भग्नौल मेलों में सुनकर यह गीत गायक बड़ा हुआ है, उन्हें गाने का रियाज निरंतर करता रहा है।
सरल व्यक्तित्व का धनी व निरंतर अंचल की लोक संस्कृति के उत्थान हेतु इस लोकगीत गायक को सदा संघर्षरत देखा जा सकता है। गाए गए तमाम लोकगीत अंचल के लोगों के दिल में बसे हुए देखे जा सकते हैं। विगत दशकों में अभी तक यह गीत रचनाकार व लोकगीत गायक लगभग तीन सौ गीत आकाशवाणी और अन्य मंचो के माध्यम से गा चुका है।
इस गीतकार व रचनाकार की खासियत रही है, कुमांऊनी लोकगीतों के माध्यम से अंचल के सुप्रसिद्ध रहे लोकगायकों के गाए गीतों के स्वर व धुनों को संजोकर उनके साथ अपने रचे गीतों को जनजीवन से जोड़कर, भावनाओं को गीतों में पिरो कर अभिव्यक्त किया है। भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों और शोध कर्ताओं के लिए अंचल के लोकगीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध कार्यो हेतु मार्ग प्रशस्त करने का कार्य किया है। लुप्त व विस्मृत हो रही धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुनर्जीवित करने का प्रभावशाली कार्य किया है। लोकगीतों व मंचित किए गए नाटकों के माध्यम से रचनाकारों को उनके जीवन यापन से जोड़ने के लिए एक मार्गदर्शक का कार्य भी किया है। मिले हौसले व प्रसिद्धि के बल ही मुखर रूप से गीतों की रचना करने तथा उन्हे गाकर चेतना जगाने वाले दीवान कनवाल जैसे संस्कृति कर्मियों की वर्तमान में अंचल के जन समाज को जरूरत है चेतना जगाए रखने व संवेदना हेतु।
अपने हुनर, ज्ञान और व्यक्तित्व के बल अंचल के युवाओं के प्रेरणाश्रोत बने गीत रचनाकर और लोकगीत गायक दीवान कनवाल अनेकों सम्मानों से भी नवाजे जा चुके हैं जिनमें मोहन उप्रेती सम्मान, युवा फिल्म अवार्ड, गोपाल बाबू गोस्वामी लिजेंट अवार्ड मुख्य रहे हैं। अनेकों ख्यातिरत सम्मानों की गठित जूरी सदस्य भी यह ख्यातिरत गीत गायक रहा है।
ख्यातिरत संस्कृतिकर्मी दीवान कनवाल के कथनानुसार, समर्पित लोग आज भी काम कर रहे हैं। उनका कार्य दिख भी रहा है। संस्कृति का भविष्य उज्ज्वल है लेकिन आज कला के प्रति कलाकारों में समर्पण का अभाव है। भौतिकवाद की छाया में कलाकार जकड़ता जा रहा है। पैसे की ओर भाग रहा है। रुचि पैसे की ओर ज्यादा है। किसी भी विधा का कलाकार हो, वह प्रभावी कार्य करे जिससे उस कलाकार को याद किया जा सके।
इस आंचलिक गीत रचनाकार के कथनानुसार, कला क्षेत्र में आदमी नहीं उसकी कला जाती है, वे भी तब जब उसका कार्य प्रभावी व अनुकरणीय हो। पुराने गायकों की छाप सिर्फ उनके वंशजों में दिखती है या जो उनको पसंद करते थे उनमें दिखती है। संस्कृतिकर्मी दीवान कनवाल आज के कुछ गायक कलाकारों को दो श्रेणियों में बांटते नजर आते हैं। पहली श्रेणी में वंशावली वाले लोकगायकों तथा दूसरी श्रेणी में हर किस्म के गाने वाले लोकगायकों को। एक लोकगायक तथा दूसरे को लोकगीत गायक के रूप में। दीवान कनवाल के कथनानुसार, लोक बोली-भाषा में गाया गया गीत लोकगायक द्वारा गाया जाता है तथा लोकगीत गायक रचना कर गाता है। नैननाथ रावल को लोक गायक तथा हीरा सिंह राणा को लोकगीत गायक के रूप में पहचानने की पुष्टि की गई है।
अंचल के लोकगीत गायन से जुड़े रहे दीवान कनवाल के कथनानुसार, पुरानी गायन शैली के अंतर्गत आने वाले बैर और भगनौल अब समाप्ति की ओर हैं। फाग, भडो, हुड़किया बौल भी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। हुड़किया बौल में तर्क से हट कर वितर्क किया जा रहा है जिससे उक्त पारंपरिक गायन परंपरा समाप्ति की ओर अग्रसर है। चैती व भिटौली गायन परंपरा आज के डीजे परंपरा में कितने समय तक टिकेगी कहा नहीं जा सकता है। इस लोकगीत रचनाकार का मानना है, गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न कला का ही संरक्षण व संवर्धन होगा। गीत रचनाकार व लोकगीत गायक संयम रखे तभी पारंपरिक लोकगायन की लंबी पारी चल सकती है।
रंगमंच के क्षेत्र में गहरा अनुभव रखने वाले दीवान कनवाल के कथनानुसार, नाटकों का मंचन पहाड़ी अंचल में लगभग समाप्त हो गया है। काम नहीं दाम का भगुवा हो गया है। आज के स्थापित कलाकारों को सब कुछ करा कराया चाहिए। उन पर मुंबईया फिल्मी शान-शौकत का असर ज्यादा छा गया है। बिना तालीम कलाकार अपने आप को ज्यादा असरदार समझने लगा है। हर संस्कृति में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। तालीम जरूरी है।
सदा अभावग्रस्त कलाकारों की पैरवी करने वाले लोकगीत गायक दीवान कनवाल को कलाकारों का हित साधने और उनके हित में बोलने वाले चन्द्र सिंह राही, गोपाल बाबू गोस्वामी तथा हीरा सिंह राणा का व्यक्तित्व व्यवहार कुशल लगा। कलाकारों व सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रति सरकारी नीतियों व बे-पैर के आदेशों का यह अनुभवी लोकगीत गायक निंदक रहा है। मानना रहा है, सरकार कार्यक्रम तो करवाती है लेकिन गरीब और अभावग्रस्त कलाकारों का मेहताना देने में दो से चार वर्ष तक का समय लगा देती है। कलाकार उक्त सरकारी नीति से टूट रहा है या चापलूसी में जीवन यापन कर रहा है जो अति शर्मनाक है। कलाकारों का उचित पारिश्रमिक समय से चुकता कर देना चाहिए।
लोकसंस्कृति को समर्पित इस लोकगीत गायक के कथनानुसार, लोग व्यक्ति को नहीं उसकी कला को तवज्जो देते हैं। रचे जा रहे आंचलिक गीतों में शब्दों का चयन घटिया हो गया है। आंचलिक शब्दो की जगह अन्य बोली-भाषाओं के शब्दों का चयन किया जा रहा है। जरूरत है शुद्ध आंचलिक या साहित्यिक शब्दों का तानाबाना बुनकर उनको गीतों में पिरोने की, जिससे अंचल और अंचल के गीतों की गरिमा बनी रह सके। बोली-भाषा के मानकीकरण पर इस लोकगीत गायक का मानना रहा है, हर कोश पर अंचल में शब्द बदल जाते हैं। बहुप्रचलित शब्दों का प्रयोग गीतों व बोलचाल में हो। अच्छे लोक कवियों की रचनाओं को प्रतिबद्ध होकर आगे लाया जाना चाहिए जो संबल बने। हर शहर में सांस्कृतिक व सामाजिक संस्थाए हैं, अच्छा कार्य कर रही हैं। कलाकारों के मन-मष्तिष्क में सोच होनी चाहिए वे अपनी लोक संस्कृति के लिए कार्य कर रहे हैं, न कि स्वयं के लिए। कलाकार वरिष्ठ कलाकारों का सम्मान करे। संस्कृति का सम्मान करे।
अपने दिल की व्यथा-वेदना से प्रकट शब्दो को गीत गायन तक पहुंचाने वाले, आंचलिक बोली-भाषा और लोक संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन के लिए सदा समर्पित रहे लोकगीत गायक व गीत रचनाकार दीवान कनवाल का सपना है, उत्तराखंड राज्य सांस्कृतिक स्मृद्धि की ओर बढ़ कर खुशहाल बने।