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उत्तराखंड की सांस्कृतिक स्मृद्धि व खुशहाली हेतु प्रयत्नशील रहे, प्रख्यात दिवंगत लोकगायक जीत सिंह नेगी

सी एम पपनैं

नई दिल्ली। उत्तराखंड के सु-विख्यात लोकगायक दिवंगत जीत सिंह नेगी ने विविध विधाओ मे प्रबुद्ध जनमानस को रचनात्मकता का परिचय दिया था। वे एक बहुआयामी विलक्षण व्यक्तित्व वाले कवि, गीतकार, संगीतकार, नृत्य व नाट्य निर्देशक तथा संवाद लेखक के साथ-साथ बेहद सरल इंसान के रूप मे जाने जाते थे। विगत माह 21जून को देहरादून में इस सु-विख्यात विभूति के निधन से उत्तराखंड के गीत-संगीत के क्षेत्र मे सूनापन महसूस किया जाने लगा है।

वर्ष 1942 में छात्र जीवन से ही गढ़वाल की सांस्कृतिक राजधानी पौड़ी के नाट्य मंचों से स्वरचित गढ़वाली गीतों का सु-मधुर गायन कर, जीत सिंह नेगी ने जीवन का शुभारंभ किया था। रचित व गाए लोकगीतों के बल प्रथम चरण मे ही उन्होंने ख्याति अर्जित कर ली थी।

जीत सिंह नेगी का जन्म 2 फरवरी 1925 को ग्राम अयाल पट्टी पैडुलस्यूं पौड़ी गढ़वाल के सुल्तान सिंह नेगी के घर हुआ था। उनकी माता का नाम रूपदेई देवी था। डीएवी कालेज देहरादून से इंटर मीडियेट पास उत्तराखंड का यह प्रख्यात लोकगायक उस दौर मे अपार ख्याति अर्जित कर चुका था, जब ग्रामोफोन व रेडियो के सिवा मनोरंजन का कोई साधन नहीं हुआ करता था। उस दौर, सन 1949 में जीत सिंह नेगी ‘यंग इंडिया ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग करा चुके थे। उनके गाए गीत उस दौर मे ख्याति के शिखर पर चढ़ गए थे।

सन 1954 मुंबई मे फिल्म कंपनी मूवी इंडिया द्वारा निर्मित खलीफा चलचित्र तथा ‘मून आर्ट पिक्चर द्वारा निर्मित फिल्म मे ‘चौदहवी की रात’ मे नेगी जी ने सहायक निर्देशक की भूमिका बखूबी निभाई थी। साथ ही मुंबई की ही नेशनल ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी में सहायक संगीत निर्देशक के पद पर कार्य किया था।

सन 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों के प्रसारण का क्रम शुरू होते ही, जीत सिंह नेगी रेडियो पर प्रथम बैच के गीत गायको मे सुमार हो गए थे। उनके कंठ से गूंजा हृदयस्पर्शी गीत
1- ‘तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा, खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी रोणु छौं परदेस मा’।
2- ‘मेरा मैता का देश ना बास घुघूती, ना बास घुघूती घूर-घूर’।
लोकगीतों के इतिहास में कालजयी रचना के रूप में जानी जाती हैं। उक्त लोकगीतो ने गढ़वाल मे लोकप्रियता की सारी सीमाएं लांघ डालीं थी। हर उत्तराखंडी के हृदय में उक्त लोकगीत आत्मसात हो गए थे।

सन 1957 व 1964 में एचएमवी एवं कोलंबिया ग्रामोफोन कंपनी ने जीत सिंह नेगी के आठ गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग की, जो अत्यधिक सुने और सराहे गए। रिकार्डिड लोकगीतो की भरमार व मिली प्रसिद्धि के बाद, जीत सिंह नेगी उस दौर मे उत्तराखंड की एक जानी पहचानी आवाज बन गए थे। उनके हर गीत में पहाड़ का प्रतिबिंब झलकने लगा था।

उस दौर मे गढ़वाल के सांस्कृतिक कार्य-कलापों में जीत सिंह नेगी जैसा कोई बहुआयामी कलाकार नहीं था। गढ़वाली गीतों की धुन बनाने और सजाने-संवारने में उनका कोई सानी नही था। इस विशिष्टता पर उन्हे लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश व आकाशवाणी दिल्ली द्वारा मान्यता प्रदान कर दी गई थी। उनके गीतों की व्यापकता और लोकप्रियता को भारतीय जनगणना सर्वेक्षण विभाग द्वारा भी प्रमाणित किया गया था।

जनमानस के बीच उनकी गायन विधा व रचनाशीलता को बल मिलते चले जाने से उन्होंने अनगिनत गीत व कालजयी नाटकों की रचना कर डाली। ‘मलेथा की कूल, ‘भारी भूल, ‘जीतू बगड्वाल इनमे प्रमुख थे। उक्त नाटक कई शहरों में मंचित भी किए गए।

दिवंगत जीत सिंह नेगी की खासियत रही, गढ़वाली लोकगीतों के माध्यम से गढ़वाल के प्राचीन व आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विचारों को वहां के जनजीवन से जोड़कर उन्होंने तथ्यो को नाटक व गीतों में पिरो, अभिव्यक्त किया। भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों के लिए गढ़वाली लोकगीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध कार्यो हेतु मार्ग प्रशस्त किया। प्राचीन, लुप्त व विस्मृत धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुनर्जीवित किया। गढ़वाली लोकगीतों व नाटकों के माध्यम से रचनाकारों को उनके जीवन-यापन से जोडऩे के लिए मार्गदर्शन दिया। स्थानीय अनेकों लोकगाथाओं को रंगमंच मे जीवंत किया।

जीवन के अंतिम समय तक उनकी रचनाशीलता का संकल्प नहीं डिगा था। कलम नहीं थमी थी। उनका सपना रहा, उत्तराखंड की सांस्कृतिक स्मृद्धि व खुशहाल उत्तराखंड। वे हैरान-परेशान रहते थे, यह देख, कि नया राज्य कल्पनानुसार नही बन पाया। वे कहने लगे थे-
‘हम कहां जाना चाहते थे, कहां पहुंच गए। कहां खो गई वह अपण्यास (अपनापन)। सोचा था, अपने राज्य में अपनी परंपराएं समृद्ध होंगी। रीति-रिवाजों के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ेगा। लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। कला और कलाकार, दोनों ही आहत हैं। दुधबोली सिसक रही है, पर उसके आंसू किसी को नजर नहीं आते हैं। सब अपने में मस्त हैं, न किसी को संस्कृति की चिंता है, न संस्कारों की।’

वे अपने प्रशंसको से अक्सर कहा करते थे- ‘सोचा था, अपने राज में अपनी भाषा-संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। गढ़वाली-कुमाऊंनी को सम्मान मिलेगा। लेकिन, हुआ क्या? हम, नया राज्य बनने के बाद भी, गढ़वाली-कुमाऊंनी को दूसरी राजभाषा बनाने का साहस तक नहीं जुटा पाए। न ही, ठोस संस्कृति की नीति और न ही फिल्म नीति ही बन पाई।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, दिवंगत जीत सिंह नेगी के रचित गीतों की व्यापकता इतनी है कि उन्हे गीतों का पुरोधा तक कहा गया। उनका उद्देश्य आजीवन लोक संस्कृति की समृद्धि हेतु लगा रहा। आंचलिक भाषा, बोली और संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन के लिए सदा सपर्पित रहे। संस्कृति को मनोरंजन का साधन मात्र मान लिए जाने पर वे क्रुद्ध रहते थे। वे कहा भी करते थे, ऐसे बचेगी संस्कृति?

जीत सिंह नेगी वर्तमान में रचे व गाए जा रहे गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता व हल्केपन से भी बेहद आहत थे। उनका मानना था, ‘गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न कला का ही संरक्षण व संवर्धन होगा।

जीत सिंह नेगी को अनेकों सामाजिक संस्थाओं व संगठनों द्वारा अनगिनत विभिन्न सम्मानों से नवाजा गया था। जिनमे कुछ प्रमुख थे, 1956 में अखिल गढ़वाल सभा देहरादून द्वारा सम्मान। 1955 में पर्वतीय जन विकास संस्था दिल्ली द्वारा गढ़वाली लोक संगीत सम्मान। 1962 में साहित्य सम्मेलन चमोली द्वारा ‘लोकरत्न’ उपाधि। 1990 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई द्वारा ‘गढ़ रत्न’ सम्मान।1995 में उत्तरप्रदेश संगीत अकादमी द्वारा अकादमी पुरस्कार। नागरिक परिषद संस्थान देहरादून द्वारा ‘दूनरत्न’। 2000 अल्मोड़ा मे प्रथम ‘मोहन उप्रेती लोक संस्कृति सम्मान’। 2011 में डा.शिवानंद फाउंडेशन की ओर से ‘डा.शिवानंद नौटियाल स्मृति सम्मान। 2016 में दैनिक जागरण की ओर से ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान’ इत्यादि।

अपने दिल की व्यथा-वेदना से प्रकट शब्दो को गीत तक पहुचाने वाले, दिवंगत जीत सिंह नेगी की रचनाओं में समाज की पीड़ा बहुत गहराई तक पैठी हुई रही। उत्तराखंड की संस्कृति, संस्कारों और जनजीवन को अपनी रचनाओं और अपने सुरों मे पिरो कर उत्तराखंड की लोकसंस्कृति और परंपराओं के संरक्षक व संवर्धन के लिए आजीवन अमिट कार्य करने मे व्यस्थ रहने वाले, जीत सिंह नेगी का अक्समात इस लोक को अलविदा कह, अनंत यात्रा पर चले जाना, उत्तराखंडी आंचलिक रंगमंच, गीत-संगीत, संस्कृति प्रेमियों तथा आंचलिक रचनाकारो के लिए अति दुखदायी रहा।

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