उत्तराखण्डदिल्लीराष्ट्रीय

जंतर-मंतर से हल्द्वानी तक: पाँचवीं अनुसूची के लिए उत्तराखंड का जनसंघर्ष

लेखक–सुरेन्द्र हालसी
      स्वतंत्र पत्रकार

उत्तराखंड को राज्य बने लगभग ढाई दशक से अधिक समय हो गया, लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि जिन आकांक्षाओं और सपनों के साथ राज्य की परिकल्पना की गई थी, वे आज भी अधूरे हैं। पहाड़ की जनता ने अपने अस्तित्व, सम्मान और रोज़गार की रक्षा के लिए 1990 के दशक में ऐतिहासिक आंदोलन किए थे। उस समय यह विश्वास था कि अलग राज्य बनने से पहाड़ के लोगों को उनका हक मिलेगा। परंतु आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो स्थिति और भी गंभीर दिखाई देती है।

उत्तराखंड में आज तकरीबन 3200 से अधिक गाँव पूरी तरह से खाली हो चुके हैं। यह केवल आँकड़ा नहीं बल्कि उस दर्द की कहानी है जिसमें खेती चौपट हो चुकी है, युवाओं के लिए रोजगार नहीं है और महिलाएँ गाँवों में अकेली रह गई हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव इस पलायन को और तेज़ कर रहा है।

जब हम हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल, मिज़ोरम और नागालैंड जैसे राज्यों को देखते हैं तो वहाँ की जनता को संविधान की पाँचवीं अनुसूची और Scheduled Tribe का संरक्षण प्राप्त है। यही कारण है कि वहाँ ग्रामीण समाज आज भी अपनी संस्कृति, ज़मीन और रोज़गार से जुड़ा हुआ है। उत्तराखंड के पहाड़, जो भौगोलिक और सामाजिक दृष्टि से बिल्कुल समान हैं, इन अधिकारों से वंचित क्यों रखे गए – यह एक बड़ा सवाल है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड के कुछ क्षेत्र पहले से ही पाँचवीं अनुसूची और Scheduled Tribe दर्जे के अंतर्गत आते हैं—जौहार घाटी की भोटिया जनजाति (मुनस्यारी क्षेत्र) को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। इसका लाभ यह हुआ कि उनकी शिक्षा, रोज़गार और सांस्कृतिक संरक्षण में सकारात्मक बदलाव आए हैं। भोटिया समाज की पारंपरिक हस्तशिल्प और ऊनी उद्योग को भी योजनागत सहयोग मिला है।
 • जौनसार-बावर क्षेत्र (देहरादून जनपद) भी पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है। यहाँ की जनता को PESA Act के तहत ग्राम सभाओं की मज़बूती, जल-जंगल-जमीन पर सामुदायिक अधिकार और सरकारी योजनाओं में प्राथमिकता का लाभ मिला है।
ये उदाहरण साबित करते हैं कि जब संरक्षण मिलता है तो समाज मज़बूत होता है और सांस्कृतिक पहचान भी अक्षुण्ण रहती है। यही संरक्षण यदि पूरे पर्वतीय क्षेत्र को मिले तो पलायन जैसी समस्या पर अंकुश लग सकता है।
यहाँ यह याद करना ज़रूरी है कि 1972 तक उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश का हिस्सा) के कई पर्वतीय क्षेत्रों को जनजातीय संरक्षण प्राप्त था। 1995 तक छात्रों को शिक्षा में 6% और सरकारी नौकरियों में 3% आरक्षण मिलता था। लेकिन बाद में यह अधिकार छीन लिया गया।
1965 की लोकुर कमेटी ने पाँच आधार तय किए थे जिनके आधार पर किसी क्षेत्र को Scheduled Tribe का दर्जा दिया जा सकता है। वे पाँचों आधार – भौगोलिक अलगाव, आर्थिक पिछड़ापन, विशिष्ट संस्कृति, सामाजिक विषमता और शिक्षा में पिछड़ापन – उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों पर पूरी तरह लागू होते हैं ।

आज पाँचवीं अनुसूची की माँग केवल सैद्धांतिक बहस नहीं रही, बल्कि जनांदोलन का रूप ले चुकी है। दिल्ली में उत्तराखंड समाज का प्रमुख संगठन “उत्तराखंड एकता मंच” इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

दिसंबर 2024 में इस मंच ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक विशाल जनसभा का आयोजन किया, जहाँ हज़ारों की संख्या में प्रवासी उत्तराखंडी और बुद्धिजीवी इकट्ठा हुए।

अब 21 सितम्बर 2025 को हल्द्वानी में एक महापंचायत का आयोजन किया जा रहा है, जो इस आंदोलन को जमीनी स्तर पर और मज़बूती देगा।

इन प्रयासों से साफ है कि पाँचवीं अनुसूची और Scheduled Tribe का मुद्दा अब केवल कागज़ी बहस तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जनभावना और सामूहिक चेतना का हिस्सा बन चुका है।

यदि उत्तराखंड की पर्वतीय जनता को यह अधिकार मिल जाता है तो— युवाओं को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलेगा।
जल, जंगल और ज़मीन पर स्थानीय समुदाय का नियंत्रण सुनिश्चित होगा।
 ग्राम सभाएँ PESA Act के तहत मज़बूत होंगी।
 पलायन की गति को धीमा किया जा सकेगा।
  संस्कृति और भाषाओं को संवैधानिक मान्यता और सुरक्षा मिलेगी।
 ्महिलाओं और वंचित वर्गों को विशेष अधिकार प्राप्त होंगे।

यह समझना ज़रूरी है कि पाँचवीं अनुसूची और जनजातीय दर्जे की माँग केवल आरक्षण तक सीमित नहीं है। यह एक संरक्षण कवच है जो पहाड़ की पहचान, संस्कृति, संसाधन और आजीविका को बचाए रखने का सबसे बड़ा साधन है। आज यदि यह कदम नहीं उठाया गया तो आने वाले समय में उत्तराखंड केवल खाली गाँवों और जड़ों से कटे समाज की तस्वीर पेश करेगा।

उत्तराखंड की जनता अब जाग चुकी है। यह माँग केवल आंदोलन का नारा नहीं बल्कि संविधानसम्मत अधिकार है। यदि हिमाचल, नागालैंड, मिज़ोरम या सिक्किम के पहाड़ी समाज को यह संरक्षण मिल सकता है, तो उत्तराखंड को क्यों नहीं?

यह समय है जब केंद्र और राज्य सरकार दोनों मिलकर इस दिशा में ठोस पहल करें। क्योंकि पाँचवीं अनुसूची और Scheduled Tribe का दर्जा ही वह उपाय है जिससे पहाड़ को उसका वास्तविक हक और भविष्य सुरक्षित मिल सकेगा।

Share This Post:-
👁️

Views: 301

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *