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दिल्ली-एनसीआर में गूंज रही है उत्तराखंड की आवाज़: गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषा की कक्षाएं बनीं सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक

Amar chand नई दिल्ली, जून 2025।उत्तराखंड की मिट्टी से जुड़ी भाषाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के उद्देश्य से दिल्ली-एनसीआर में गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषा की कक्षाओं का संचालन लगातार विस्तार पा रहा है। यह पहल अब केवल एक शैक्षिक प्रयास नहीं, बल्कि उत्तराखंड प्रवासी समाज की सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक बन चुकी है।

इस प्रेरणादायक पहल का शुभारंभ डीपीएमआई (दिल्ली पैरामेडिकल एंड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट) के अध्यक्ष डॉ. विनोद बचेती द्वारा किया गया था। एक छोटे से प्रयास से शुरू हुई यह मुहिम अब दिल्ली-एनसीआर के कई क्षेत्रों में जड़ों से जुड़ने का माध्यम बन गई है। इन कक्षाओं में शिक्षा देने वाले शिक्षक अपने व्यस्त समय से समय निकालकर अपने आने वाली पीढ़ी को अपनी बोली भाषा की पहचान से रूबरू कराते रहते हैं।दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों जैसे रोहिणी, द्वारका, लक्ष्मी नगर, विनोद नगर,गाजियाबाद, नोएडा और फरीदाबाद ,ओर दिल्ली में कई जगहों पर हर रविवार में चल रही इन कक्षाओं में बच्चों को उत्तराखंड की मातृभाषाओं के साथ-साथ उनकी संस्कृति, रीति-रिवाज, लोकगीत और कहावतें भी सिखाई जाती हैं। बच्चे अपनी बोली में संवाद करना सीख रहे हैं और उत्तराखंड की विविधताओं को समझ पा रहे हैं।

डॉ. बचेती ने अपने वक्तव्य में कहा,”हम चाहते हैं कि उत्तराखंड का हर प्रवासी बच्चा अपनी बोली से नाता बनाए रखे। यह कक्षाएं केवल भाषा सिखाने का जरिया नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन हैं, जो हमारी जड़ों से हमें जोड़ रहा है।”

इन कक्षाओं को उत्तराखंड प्रवासी समाज, सामाजिक संगठनों और स्वयंसेवी शिक्षकों का भरपूर सहयोग मिल रहा है। सप्ताहांत में चलने वाली इन कक्षाओं में बच्चों के साथ माता-पिता भी भाग लेते हैं। कई स्थानों पर डिजिटल माध्यम से भी भाषा सिखाई जा रही है ताकि दूर-दराज़ में रहने वाले बच्चे भी जुड़ सकें।

अब इन कक्षाओं को संस्थागत रूप देने और “उत्तराखंडी बोली एवं संस्कृति” के नाम से एक लघु प्रमाणपत्र कोर्स शुरू करने की दिशा में काम हो रहा है। साथ ही बच्चों के लिए पहाड़ी लोककथाओं, गीतों और कहावतों पर आधारित शैक्षणिक सामग्री तैयार की जा रही है।

दिल्ली-एनसीआर की इस अनोखी पहल ने यह सिद्ध कर दिया है कि भाषा और संस्कृति को दूर देश में भी जीवंत रखा जा सकता है, बशर्ते इच्छाशक्ति और समाज का साथ मिले। डॉ. विनोद बचेती और उनकी टीम का यह कार्य उत्तराखंड की भाषाई धरोहर को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने में मील का पत्थर साबित हो रहा है।

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