उत्तराखंड की पहचान हमेशा उसके परिश्रमी, कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार ग्रामीणों से रही है। पहाड़ के बाशिंदों ने अपने पसीने और कठोर श्रम से कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में भी जीवन को सँवारा और गांवों को आबाद रखा। खेती-किसानी, पशुपालन और पारंपरिक व्यवसाय ही उनकी आजीविका का आधार रहे। यही मेहनतकश स्वभाव उत्तराखंड की आत्मा कहा जाता था।
लेकिन समय के साथ परिदृश्य बदला। नई पीढ़ी ने परिश्रम की राह छोड़कर आसान और त्वरित सफलता की चाह में “हार्डवर्क” के स्थान पर “स्मार्टवर्क” को महत्व दिया। रोजगार और अवसरों की तलाश में लोग गांवों से पलायन कर शहरों और मैदानी इलाकों की ओर चले गए। नतीजा यह हुआ कि आज सैकड़ों गांव पूरी तरह खाली हो गए और कई गांव ‘भूतिया गांव’ के नाम से पहचाने जाने लगे।
चिंताजनक स्थिति यह है कि जो लोग अब भी गांवों में हैं, उनमें भी मेहनत करने का उत्साह कम होता जा रहा है। सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली मुफ्त सुविधाएं—जैसे फ्री राशन, प्रधानमंत्री किसान निधि, आयुष्मान कार्ड जैसी स्वास्थ्य सेवाएं और मुफ्त शिक्षा—जहाँ एक ओर जरूरतमंदों के लिए राहत का काम करती हैं, वहीं दूसरी ओर धीरे-धीरे लोगों को श्रम से विमुख भी कर रही हैं। परिश्रम और आत्मनिर्भरता, जो कभी उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन की धुरी थे, अब निर्भरता और आश्रित मानसिकता में बदलते जा रहे हैं।
यह बदलाव केवल आर्थिक नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक चिंता का विषय भी है। यदि ग्रामीणों का श्रम-प्रधान जीवनशैली समाप्त हो गई, तो आने वाली पीढ़ियों को न केवल रोजगार संकट झेलना पड़ेगा बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर और आत्मगौरव भी संकट में पड़ जाएगा।
आज आवश्यकता है कि सरकारी योजनाओं का उपयोग केवल सहारा देने के लिए हो, न कि परिश्रम के विकल्प के रूप में। ग्रामीणों को फिर से श्रम, स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता की ओर प्रेरित करने की नीतियाँ बनानी होंगी। कृषि, स्थानीय उद्योग, बागवानी और पर्यटन को रोजगार के साधन बनाकर ही पहाड़ की पहचान को जीवित रखा जा सकता है।
उत्तराखंड को यदि सशक्त और समृद्ध बनाना है तो गांवों की मेहनतकश आत्मा को पुनर्जीवित करना ही सबसे बड़ी चुनौती है।