ताड़केश्वर महादेव को स्मरण
लेखक वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार डा. हरीश लखेडा
भगवान श्री ताडक़ेश्वर महादेव का स्मरण कर देवांगी ने पवित्र कुंड से थोड़ा सा जल अपनी अंजुलि में लिया और नेत्रों को भिगो लिया। नेत्र भीगते ही उसे अपार सुख की अनुभूति हुई। दूसरी बार अंजुली भर जल कंठ में उतार दिया। अब उसे लगा जैसे कि सदियों की प्यास बुझ गई हो। देवांगी अब कुंड की सीढिय़ों पर उतर आई थीं। मां जब भी इस धाम में आती तो हर बार बताती थी कि यहां असुर ताडक़ेश्वर का वध करने के बाद देवों के देव महादेव को प्यास लगने पर मां पार्वती से इस कुंड को स्वयं खुदवाया था। वह इस पवित्र कुंड में उतरकर स्नान करना चाहती थी। स्नान करके जैसे कि अब तक के सभी ऋणों से उऋण हो जाना चाहती थी, लेकिन जेष्ठ के माह में भी कुंड का जल बहुत शीतल था। इतना ठंडा कि हाड़ तक कंपकंपाने लगे। वह रुक गई। पंच स्नान करने के लिए उसने अपने बाल खोले और अंजुलिभर जल बालों से लेकर पूरे तन पर छिड़क दिया था। कुछ देर बाद भीगे बालों को सुखाने के लिए उन्हें हवा में लहलहा दिया था। उस पल देवांगी को लगा कि जैसे कि वह स्वंय भी मां गौरा जैसी हो। मां गौरा के भोलेनाथ की शरण में पहुंचकर वह बहुत आनंदित थी, जैसे कि सातों संसार का सुख एक साथ मिल गया हो। उसे अनुभव हुआ कि जैसे सभी धामों के दर्शन कर लिए हों। बचपन में तो वह सहेलियों के साथ कुंड में हमेशा स्नान करने के बाद ही मंदिर में भगवान के द्वार जाती थी।
कुंड से बाहर निकलने के बाद वह अब भगवान के दर्शन करने जाने लगी। तभी एक देवदार के वृक्ष के पास आकर रुक गई। यह वही देवदार के वृक्ष था, जहां भगवान के दर्शन के बाद मंदिर से लौटने के बाद वे मिलते थे। जिसकी छाया में बैठकर बचपन में मां सभी भाई-बहनों को भोजन खिलाती थी। भगवान के दर्शनों के बाद कहीं भी घूमें लेकिन सभी बच्चों को एक तय समय में इसी वृक्ष के नीचे आना पड़ता था। इस वृक्ष के पास आते ही देवांगी की स्मृतियों की पोटली खुल कर बिखरने लगी थी।
उस दिन देवांगी को मां ने बताया कि यह देवदार के उन सात वृक्षों में से एक है जिसे मां पार्वती ने यहां रोपा था। यहां असुर ताडकासुर के वध के बाद भगवान शिव ने विश्राम करने लगे थे, लेकिन सूर्य की तेज किरणों से परेशान थे। इस पर मां पार्वती ने वहां देवदार के सात वृक्ष रोप दिए थे। उसी से आज हरा भरा वन था।तब मृत्यु से पहले ताड़कासुर ने महादेव से क्षमा मांग ली थी, महादेव ने उस असुर को क्षमा करने के साथ ही वरदान दिया था कि यह धाम उसके नाम से ही जाना जाएगा। देवांगी जानती थी कि यह लोक मान्यता है, लेकिन उसके लिए यह सच ही था। इस धाम को छोडक़र उस क्षेत्र में दूर-दूर तक देवदार के वृक्ष नहीं थे। मां बचपन से भगवान ताडक़ेश्वर की कहानियां सुनाती रहती थी। मां ने कहा था कि ताडक़ेश्वर, एकेश्वर आदि सात भाई थे।
अचानक उसे लगा कि कोई पुकार रहा है।
-देवागी कहां हो। कब से तुम्हारी बाट जोह रहे हैं। अब घर चलो।
देवांगी को लगा जैसे कि मां उसे पुकार रही हो। वह चौक गई थी। हमेशा ही मां यही कहती थी। आज आवाज तो मां जैसी ही थी लेकिन आसपास कोई न था। उसे महसूस हुआ कि उसकी आंखें नम हो चुकी थी। स्मृतियों की पोटली को समेटते हुए देवांगी मंदिर की ओर आगे बढऩे लगी थी।
— (जारी)