धर्म, संस्कृति और आरक्षण की राजनीति : जंतर-मंतर पर बजरंगबली का स्वरूप और एक समुदाय की पुकार
स्वतंत्र पत्रकार
दिल्ली के जंतर-मंतर पर देशभर की आवाज़ें समय-समय पर गूंजती रही हैं। इसी कड़ी में हाल ही में कर्नाटक से आए एक समुदाय के लोग अपनी मांगों को लेकर राजधानी पहुँचे। ध्यान आकर्षित करने का उनका तरीका अनोखा था – उनमें से एक व्यक्ति बजरंगबली के भेष में था, हाथ में गदा और गले में फूल-मालाएँ। पोस्टर पर लिखा था कि वे दिल्ली में न्याय की तलाश में आए हैं, जो उन्हें सड़कों या बेंगलुरु में नहीं मिला।
भारत में धर्म और संस्कृति हमेशा से सामाजिक आंदोलनों का अहम हिस्सा रहे हैं। जब कोई समुदाय अपने देवता या धार्मिक प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी बात रखता है, तो उसकी आवाज़ समाज और राजनीति में अधिक गूंजती है। बजरंगबली का स्वरूप यहाँ केवल धार्मिक आस्था का नहीं बल्कि शक्ति, साहस और न्याय की खोज का प्रतीक है। यह संदेश है कि उनका आंदोलन आक्रामक नहीं, बल्कि संस्कृति और भक्ति से जुड़ा हुआ है।
इनकी मुख्य मांग है कि उनके समुदाय को एक प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण दिया जाए। आरक्षण भारत की राजनीति और समाज का संवेदनशील विषय है। यह न केवल सामाजिक न्याय का माध्यम है, बल्कि वोट बैंक और राजनीतिक समीकरण का भी बड़ा हिस्सा बन चुका है। इस पृष्ठभूमि में इनकी मांग नई नहीं है, लेकिन तरीका नया है।
आजकल देखा जाता है कि सरकारें उन आंदोलनों पर जल्दी प्रतिक्रिया देती हैं जिनमें हिंसा, तोड़फोड़ या अराजकता होती है। शांतिपूर्ण और सांस्कृतिक आंदोलनों को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। यही वजह है कि एक धारणा बन चुकी है कि सरकारें केवल दबाव की राजनीति के आगे झुकती हैं। ऐसे में यह आंदोलन यह परखने की कसौटी बनेगा कि क्या अहिंसात्मक और सांस्कृतिक आधार पर चलाया गया आंदोलन सरकार को प्रभावित कर सकता है या नहीं।
केंद्र सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह इस तरह की मांगों को कैसे संतुलित करे। यदि हर समुदाय इसी तरह से अतिरिक्त आरक्षण की मांग करने लगे, तो नीति-निर्माण में गंभीर कठिनाइयाँ पैदा होंगी। परंतु दूसरी ओर, यदि इनकी शांतिपूर्ण अपील को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जाता है, तो यह एक खतरनाक संदेश देगा कि “अराजकता ही न्याय पाने का रास्ता है।”
यह आंदोलन केवल आरक्षण की मांग भर नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली पर भी एक प्रश्नचिह्न है। क्या अहिंसक और सांस्कृतिक आंदोलनों की आवाज़ सुनी जाएगी या फिर सरकार केवल उन लोगों को महत्व देगी जो हिंसा और अराजकता का रास्ता अपनाते हैं? आने वाले दिनों में इसका जवाब केंद्र सरकार की नीति और रवैये से सामने आएगा।
यह आंदोलन हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम महात्मा गांधी की अहिंसा की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं या उसे भुलाकर दबाव और हिंसा की राजनीति को ही स्वीकार कर चुके हैं।