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बंसत की बहे ला ब्यार ‘ सजना आ जाओ हमार – खबरीलाल

लेखक विनोद तकिया वाला स्वतंत्र पत्रकार

भारत को पर्व त्योहारो का देश कहा गया है।यहाँ की संस्कृति – सभ्यता ही विश्व के मानचित्र में हमारी पहचान है। लेकिन दुःख की बात यह है कि इस भौतिक वादी युग में आज मानव अपने भोग विलास इतना लिप्त हो गया है कि उसे पता ही नही है कि उसके जीवन का लक्ष्य क्या है।आज उसके पास समय नही है।विगत वर्षो में प्रकृति ने मानव को उसके जीवन के वास्तविक जीवन से परिचय वैश्विक महामारी कोरोना संकट काल में कराया दिया है।

वसंत ऋतु का आगमन हो चुका है।वसंत के स्पर्श मात्र से प्रकृति पुल्लकित व पल्लवित हो गई है । प्रकृति ने अपना श्रंगार किया है । खेतो में खड़ी सरसों के लहराते पीले फूलों ने वसंत बयारों के साथ नव यौवनाओं की तरह अठ खेलियाँ कर रही है।बागों में आम के पेड़ो पर नव मंजरी की मन मोहक मादकता की सुगंध से जग जाहिर हो गया है कि ऋत राज का आगमन हो चुका है।ऋतराज वसंत अपने साथ प्राकृतिक आनंद लेने की सुःखद सौगात लेकर आपके घर आँगन में अपनी उपस्थित दर्ज करा दी है।जिस की चर्चा गाँव में बुजुर्गों के चौपाल,पनघट पर पन हारियों की घूंघट के अन्दर से निकलती विरह की गीतों सुनाई पड़ने लगी है।बसंत आगमन की खुशी में बाग -बगीचे व उपवन में रंग बिरंगे सुमन की सुंगध चहुं दिशायें महक उठी है,चिड़ियाँ चहकने लगी है।प्रकृति का पराग पर्यावरण में इस कदर छलका है कि देश का सम्पूर्ण परिवेश आनंदित हो गया है।सारे जहान में सरसता ही सरसता झलकता है ,
मै अपनी विस्तर पर लेटा ही था,तभी मेरी नजर अनायास ही समाने की दीवार पर टंगे हुए पर पड़ते ही पता चला कि वसंत के मनमोहक मादकता की महक से भरे वातावरण में प्रकृति रानी एक नव नवेली दुल्हन की तरह सातों श्रृंगार करने के लिए तत्पर है ‘ वही ओर पर्वत राज हिमालय के स्वेत हिम खण्डों से सर्द हवाओं का हाड़ कप कपाने वाली सर्दी हम कहानी सम्राट मंशी प्रेमचंद जी द्वारा लिखित कहानी ‘पुस की रात ‘की यादें ताजा कर रही है।
आज के भौतिकवादी युग में वसंत की यादें धूमिल सी हो गई है । खासकर विकाश के नाम पर जगह – जगह विकाश काय कंकरीट के जंगल गगन चुम्वी इमारतों में रहने वाले समाज के सभ्य मानव मशीनों की तरह अपने जीवन जीने को मजबूर है।
मै सोचने को बाध्य हो गया हुँ कि काश इस समय मै अपने गाँव में होता जहाँ ऋतु राज वसंत आगमन के स्वागत में गाँव के सभी बच्चे बुड़े ,नव युवक -नव युवतियां’ किसान व ग्रहणी अपने अपने स्तर तैयारियो में जुट जाते है।अन्न दाता किसान अपने खेतों में लहराते हुए रवि फसलों में लगे हरे हरे गेंहू की बाली,चने-मटर व तीसी के रंग बिरंगें फुलों के संग वसंत वयारो प्रकृति अपनी अल्हड यौवन की अटखेलियाँ थकते नही है।यहाँ के सभी वन उपवन में खिले रंग विरंगें फुलों से स्वयं प्रकृति ने श्रृंगार किया है। तभी तो रसिक भंवर में अपने मधुर संगीत की प्रेम घुन छेड़ दी है।संगीत के मर्मज्ञ संगीतकारो ने अपनी साज व वाध्य यंत्रो से संगीत के मधुर रस घुलने वाली तान का रियाज करने में व्यस्त हो गए है।इस वासंतिक स्पर्श से साधको का अन्त करण भी कैसे अछुता रह सकता है। साधकों के संकल्प में नये सुमन खिले है जो साधना में बिखेर रही है।अपने सद्गुरु की सानिध्य में साधकों द्वारा साधना के सातो स्वर ‘आस्था,श्रद्धा,सेवा , समपर्ण,त्याग ‘करूणा व प्रेम ने माधुर्य रस बरसाने लगे है। सद्गुरू प्रेम के सरगम ने साधकों के अंत करण इस कदर तान छेडी है कि आज सम्पूर्ण वातावरण स्पंदित होने लगा है।यहाँ तक की स्वयं अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश अथार्त स्वयं ज्ञान की देवी सरस्वती विभोर व भाव विहल हो कर महाप्रज्ञा कि ऋतम्भरा बन कर समस्त मानव समुदाय को वरदान देते हुए साधको के अन्तस के अस्तित्व में स्वयं अवतरित हो रही है।वसंत की उपस्थित में सदा मौन रहने वाला पर्वतराज हिमालय भी आज अपने आप को अछुता नही रख पाया है। बसंत के माधुर्य बयारों से हिमखंड हिमालय को मुखर कर दिया है।उससे गुजरने वाला वायु के वात रस में बहने वाली नदियों की जल घारा में मिठास घोल दी है।मधुमास के रंग में मधुवती हो गई है देवदार चीर – चिनार के संग अनेकों जुड़ी बुटी व औषिध पौधे ने अभय दान का अमृत रस घोलने शुरू कर दिया है ।हिमालय के कंदराओं में साधना रत ऋषि मुनि अपना मौन तोड़कर मुखर हो गए है।
स्वेत हिम खण्ड से सदा ही अच्छादित कैलाश वासी सदगुरु शिव शंकर ने अपने साधक संतानों को साधना द्वारा अपने अंतकरण क्रे द्वार की चाबी सौप कर उनका मार्ग दर्शन कर रहे है। आज मलयाचल पर्वत से अमृत वेला में बहने वाली ब्यार के संग संदेश भेजा है कि यह साधना की वेला है जन जागरण का समय व अध्यात्मिक कान्ति के माध्यन से नर से नारायण बनने की वेला है । जो जागृत है ,साधना रत है लेकिन अपने अंतराल के अंधकारमय अंहकार मे उलझे है ‘ वे ये नही जानते है कि बाहर से दिखने वाला स्वर्ण कलश में भड़कीले – चमकीले पश्चिमी सभ्यता ने हमारे समाज में शनै शनै विष घोल रही है।इस सभ्यता के प्रबल समर्थक भारतीय प्राचीन सभ्यता व संस्कृति की मिटटी कलश में छिपे अमृत कलश की अनदेखी करने है।जिसके दुष्परिणाम आज आप व हमारे समाने है।
ऐसे मे प्रेम पथिक वसंत ने भारत भुमि के निवासी यह कहने को मजबूर हो गया है कि ” तुमने मुझे रुला दिया रे — — — रुला दिया।तुम ने मुझे भूला दिला रे — – भुला दिया लैकिन मै तुझे कैसे भुला सकता हूँ । मुझे तो इस देव भुमि से प्रगाढ़ प्रेम है । आप के पुर्वजों से वे शर्त प्रेम है।इसलिए मै प्रत्येक वर्ष अपने चाहने वाला निष्क्राम प्रेमियों के लिए आता था ‘ आ गया हूँ और भविष्य में भी आता रहुँगा।अपने प्रेमी के जीवन में आनंद रस घोल कर अमृत पान कराने के लिए !
आज के भौतिकवादी युग में खास कर शहरी करण में मानव अपने जीवन के आपा धापी में इतना मसगूल हो गया है उसे पता ही नही उसके जीवन का लक्ष्य क्या है। मै भी इससे अछूता नहीं रह गया हूँ । तभी अचानक अपने गाँव के गलियों में वितायें हुए दिन की स्वर्णिम यादें सताने लगी है। मेरे नजर के समाने चलचित्र के समान बसंत पंचमी के बहने वाले वासंतिक बयार व गांव नव विवाहित महिला का नव यौवनायें से रोजी रोटी कमाने गये प्रियतम के नाम प्रेम .. में प्रेम भाव से उल्हाने व स्नेह भाव निमंत्रण भेजने का आग्रह करती है कि मेरे प्रिय प्रियतम अब तुम्हारे बिना मेरे से नही रहा जाता है। तुम कब घर आओगे ‘ मेरे नयन के आंसू भी सुख गये है ! माँ जी बात बात उल्हानें व छोटी ननद की ताने सुन सुन कर मै अब और नही जी सकती हूँ ‘ गाँव की गलियों ‘ पनघट पर पनिहारी के विरह गीतों नें मेरे हृदय में तीर चला कर घायल कर दिया है। उपर कोमल की प्यारी सी कू – कू भी अभी नही भाती है। उपर से ऋतु राज बसंत के आगमन से प्रकृति ने भी अपना सोलह श्रृंगार कर मेरे जीवन में विरह की आग लगा दिया है। अब तो घर लौट कर आ जाओ । बसंत की बहे ला ब्यार ‘ सजना घर लौट आओ हमार ।
प्रिय पाठक आप के जीवन मे भी वसंत आप के दलहिज पर आ कर दस्तक दे रहा है।आपको हंसाने ‘ जीवन का सच्चे आनंद लेने के लिए !यह वसंत आपके जीवन में प्रेम अनुराग ‘ उल्लास लाये यही हमारी कामना है।फिल हाल यह कहते हुए विदा लेते है – ना ही काहू से दोस्ती,ना ही काहूं से बैर ।खबरी लाल तो माँगे सबकी खैर ॥

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