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समकालीन हिंदी कवियों मे विख्यात मंगलेश डबराल का निधन

सी एम पपनैं

नई दिल्ली। समकालीन हिंदी कवियों में चर्चित, मंगलेश डबराल का कोरोना सक्रमण से दिल्ली के एम्स मे मंगलवार की सांय 72 वर्ष की उम्र मे निधन की खबर से, देश के साहित्य जगत में शोक की लहर छा गई है। विगत दो सप्ताह पूर्व उन्हे कोरोना विषाणु संक्रमण से पीड़ित होने के बाद ‘ली क्रेस्ट प्राइवेट हस्पताल सैक्टर 4, वसुंधरा, गाजियाबाद’ मे भर्ती किया गया था। सुधार न होने, हालात बिगडने पर उन्हे दिल्ली के ‘एम्स’ मे इलाज हेतु भर्ती किया गया था, जहा उन्होंने अंतिम सांस ली।

16 मई 1948 को उत्तराखंड टिहरी गढ़वाल के काफलपानी मे जन्मे मंगलेश डबराल की शिक्षा देहरादून मे हुई थी। हिंदी अखबार पैट्रियट, प्रतिपक्ष, आसपास, अमृत प्रभात मे कार्य करने के पश्चात, उन्होंने 1983 से करीब दो दशक तक प्रतिष्ठित हिंदी अखबार जनसत्ता मे साहित्य संपादक के पद पर कार्य कर, अपार ख्याति अर्जित की। ततपश्चात राष्ट्रीय सहारा व नेशनल बुक ट्रस्ट से भी वे जुडे रहे।

मंगलेश डबराल के पांच काव्य संग्रहो मे पहाड़ पर लालटैंन (1981), घर का रास्ता (1988), हम जो दिखते हैं (1995), आवाज भी एक जगह है, नए युग में शत्रु। दो गद्य संग्रहो मे, लेखक की रोटी, कवि का अकेला पन। यात्रा व्रतांत मे, एक बार आयोवा ने साहित्य जगत मे अपनी छाप छोडी थी। कविता व साहित्य रचना के साथ-साथ सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयो पर भी उन्होंने नियमित लेखन कर, ख्याति अर्जित की थी।

भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त मंगलेश डबराल की रचित कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, डच, स्पेनिश, इतालवी, फ्रांसिसी, पोलिश और बुलगारियन भाषाओं में प्रकाशित हुआ था। मंगलेश डबराल स्वयं एक सु-विख्यात अनुवादक व उत्तराखंड के लोक साहित्य व संस्कृति के भी विशेष ज्ञाता थे। उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म और भाषा पारदर्शी थी।

तथ्य परक प्रभावशाली कविताओ की रचना हेतु मंगलेश डबराल को ओम प्रकाश स्मृति सम्मान (1982), श्रीकांत वर्मा सम्मान (1989) व साहित्य अकादमी पुरस्कार (2000) के अतिरिक्त दिल्ली हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान व कुमार विकल स्मृति पुरुस्कार भी प्राप्त हुआ था।

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