हरेला महापर्व पर ‘अपनी धरोहर’ द्वारा हरियाली और वृक्षारोपण राष्ट्रीय अभियान का शुभारंभ
सी एम पपनैं
नई दिल्ली। पर्यावरण प्रहरी के तौर पर विगत कुछ वर्षों से उत्तराखंड में सजग होकर कार्य रही ‘अपनी धरोहर’ नामक संस्था द्वारा 17 जुलाई को हरेला महापर्व के अवसर पर हरियाली और वृक्षारोपण राष्ट्रीय अभियान का शुभारभ सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल ए एस रावत की अध्यक्षता तथा दिल्ली शिक्षक विश्व विद्यालय उपकुलपति प्रो.धनंजय जोशी, द्वारका उत्तरायणी समिति अध्यक्ष प्रेम सिंह रावत, उद्योग जगत व समाज सेवा से जुड़े चंद्र बल्लभ टम्टा, भारत सरकार शिक्षा विभाग सलाहकार देवेंद्र सिंह असवाल, समाज सेवी सी एस विक्र तथा अपनी धरोहर उपाध्यक्ष ललित पंत विशिष्ट अतिथियों के सानिध्य में द्वारका सेक्टर 12 स्थित उपकारी अपार्टमेंट्स में किया गया। हरेला महापर्व के इस अवसर पर एक सार्थक संगोष्ठी का आयोजन तथा पौंधा रोप कर वृक्षारोपण राष्ट्रीय अभियान का शुभारंभ किया गया।
आयोजक संस्था ‘अपनी धरोहर’ दिल्ली प्रदेश मुख्य संयोजक सूर्य प्रकाश सेमवाल तथा नीरज बवाड़ी द्वारा विशिष्ट मंचासीन अतिथियों का स्वागत अभिनन्दन कर संस्था का मैडल पहना कर, शाल ओढ़ा कर, पौंध का गमला तथा स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया गया।
हरेला महापर्व के इस पावन अवसर पर आयोजित विचार गोष्ठी में मुख्य व विशिष्ट अतिथियों द्वारा कहा गया, हरेला पर्व उत्तराखंड का ही नहीं पूरे भारत का पर्व है। महापर्व है, देश के विभिन्न राज्यों में अलग नामों से जाना व मनाया जाता है। प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी उत्तराखंड के लोकपर्व हरेले की महत्ता से संपूर्ण देश को अवगत कराया है, पर्यावरण संरक्षण से जुड़े इस लोकपर्व को लेकर व्यापक स्तर पर मनाए जाने व पोंधे रोपे जाने पर बल दिया है।
वक्ताओं द्वारा कहा गया, जीवन का अधिकार संविधान से पूर्व पर्यावरण से जुड़ा हुआ है। हम पर्यावरण की रक्षा करेंगे तो पर्यावरण हमारी रक्षा करेगा। वक्ताओं द्वारा कहा गया, ऐसा विकास किस काम का जो विनाश की कगार पर ले जाए। विकास कार्य पर्यावरण की महत्ता को समझ कर किया जाए, न कि निजी स्वार्थों व लाभ को देख कर। कहा गया, चिपको आंदोलन से प्रेरणा लेना जरूरी है। ‘अपनी धरोहर’ जीवन से जुड़ी धरोहर को बचाने हेतु महत्वपूर्ण सहभागिता कर रही है। हरेला हमारी प्रकृति के संवर्धन व मानव के जीवन से जुड़ा हुआ है। ‘अपनी धरोहर’ हरेला महापर्व पर हरियाली और वृक्षारोपण का राष्ट्रीय अभियान चला रही है जो स्वागत योग्य कदम है।
वक्ताओं द्वारा कहा गया, संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1972 में 5 जून को प्रतिवर्ष विश्व पर्यावरण दिवस मनाए जाने का प्रस्ताव पास किया गया था, परंतु उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में तो प्राचीन काल से ही पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरागत रूप में मनाए जाने वाला हरेला पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा एक महत्वपूर्ण लोकपर्व है। उत्तराखंड में मनाए जाने वाले त्यौहारों व पर्वों के पीछे ज्ञान था विज्ञान था, जिस ज्ञान-विज्ञान को जानने समझने में विश्व के देशों को कई शताब्दियों व कालखंडों के बाद उनकी महत्ता का पता चला।
विचार गोष्ठी के उपरांत पर्यावरण के क्षेत्र में ‘अपनी धरोहर’ के साथ राष्ट्रीय अभियान में सहभागी रहे प्रोफेसर कमल मल्होत्रा, कामायनी, दुर्गा सिंह भंडारी, हरीश लखेड़ा, चन्द्र मोहन पपनै, सुषमा चौधरी, अरुण चौधरी, निधि उनियाल, प्रदीप डंगवाल, आलोक पुरोहित, देवकी नंदन बिष्ट, संजय पाठक, नीरज बवाड़ी, लक्ष्मी नेगी, वंदना, सी पी डंगवाल इत्यादि इत्यादि को शाल ओढ़ा व मैडल पहना कर तथा स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया गया। स्थानीय पार्क में सामूहिक रूप से पौधरोपण कर आयोजित कार्यक्रम का समापन किया गया। आयोजित सार्थक संगोष्ठी का मंच संचालन बखूबी प्रोफेसर सूर्य प्रकाश सेमवाल द्वारा किया गया।
उत्तराखंड के लोकपर्व ‘हरेला’ का प्राचीन काल से बहुत बड़ा महत्व तथा सांस्कृतिक आधार रहा है। धरती की हरियाली को अक्षुण्य बनाये रखने के साथ-साथ समस्त प्राणी समुदाय के जीवन को आधार प्रदान करने वाले तथा नई ऋतु शुरू होने का सूचक हरेला लोकपर्व माता पार्वती तथा भगवान शिव से शांति व समृद्धि के रूप में आशीर्वाद लेने का पर्व माना जाता रहा है। यह पर्व पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण तथा खेती-किसानी का भी बहुत बड़ा आधार रहा है।
परंपरागत रूप में चली आ रही मान्यताओं के अनुसार उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में हरेला वर्ष में तीन बार चैत्र मास, श्रावण मास तथा अश्विन मास में मनाया जाता है। यह पर्व ऋतु परिवर्तन का सूचक पर्व है। चैत्र मास में बोया व काटा जाने वाला हरेला गर्मी आने की सूचना देता है। अश्विन मास की नवरात्रि में बोया जाने वाला हरेला सर्दी आने का सूचक है। सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाने वाला हरेला श्रावण मास के प्रथम दिन काटा जाता है।
श्रावण मास की संक्रान्ति को अंचल के प्रत्येक गांव व कस्बों में पीढ़ी दर पीढ़ी बड़े धूमधाम से मनाया जाने वाला हेरला समाजिक रूप से विशेष महत्व रखता आया है। प्रकृति के निकट जाने तथा उसके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए बरसात के मौसम में होने वाली नई फसल का यह प्रतीक है। इस दिन फलों व पशु चारे के पेड़ लगाकर प्रकृति के संवर्धन में योगदान देकर प्रकृति के चिरायु रहने की कामना की जाती है।
प्रकृति से जुड़े उत्तराखंड के इस महत्वपूर्ण पर्व को कुमाऊं अंचल में हरेला तथा गढ़वाल अंचल में मोल-संक्रांद या राई-सगरान के रूप में मनाया जाता है। गढ़वाल में धान और झंगोर की फसल को कीड़ों से बचाने के लिए खेतों में मोल के वृक्ष रोपे जाते हैं। कुमाऊं अंचल के घर-परिवारों में इस त्यौहार को मनाने की तैयारी कई दिन पूर्व से की जाने लगती है। हरेला बीज बोने के लिए साफ, शुद्ध, सूखी व छनी हुई मिट्टी का प्रयोग किया जाता है। हरेला त्यौहार से 9 दिन पूर्व यानि सौर संक्रांति से पूर्व चौड़े पत्तों, मिट्टी या बांस से बनी टोकरियों, दोने (कटोरे) या पत्तलों में तैयार की गई शुद्ध सूखी मिट्टी बिछा कर घर में उपलब्ध पांच से सात प्रकार के खाद्य बीज जिनमें मक्का, धान, तिल, भट्ट, उड़द, गहत, जौ इत्यादि को मिला कर घर के मंदिर या किसी पवित्र स्थान पर उक्त खाद्य बीजों का मिश्रण कर बो दिया जाता है। बोए बीजों की मिट्टी में प्रति दिन प्रातः पानी का हल्का छिड़काव नौ दिनों तक किया जाता है। हरेले की पूर्व संध्या के दिन हरेले की गुड़ाई की जाती है, उक्त हरेले को दो गुच्छों में पवित्र धागे से बांध दिया जाता है।
अंचल के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में त्यौहार से एक दिन पूर्व भगवान शिव, देवी पार्वती व श्रीगणेश की मिट्टी की मूर्तियां बनाई जाती हैं, उन्हें प्राकृतिक रंगों से सजाया-संवारा जाता है। निर्मित मूर्तियों को स्थानीय लोक बोली-भाषा में डिकारे या डिकारा कहा जाता है। हरेले की पूर्व संध्या पर ही निर्मित डिकारो की पूजा की जाती है, जिसे डिकारा पूजन कहा जाता है।
दसवें दिन बोए गए बीजों से अंकुरित पांच-छह इंच की ऊंचाई ले चुके पौंध की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। हरेले तथा निर्मित मूर्तियों की पूजा विधि विधान के साथ की जाती है। घर के मुखिया द्वारा विधि विधान के साथ हरेला काट कर उक्त हरेले के तिनकों को अच्छी फसल तथा घर परिवार की समृद्धि की कामना के साथ
निर्मित डिकारो तथा घर मंदिर में स्थापित देव मूर्तियां के साथ-साथ गांव के इर्द-गिर्द स्थापित देव स्थलों व थानों में स्थापित देवी-देवताओं को विधि-विधान के साथ चढ़ाया जाता है।
पूजा-अर्चना के पश्चात परिवार के मुखिया द्वारा घर के सभी सदस्यों के शीश में आदर के साथ हरेला रखने से पूर्व परिवार में जन्मे नवजात शिशु के शीश में हरेला रखा जाता है। हरेले के तिनकों को दोनों पैरों, घुटनों, कमर, छाती, कंधे पर छुआ कर आशिर बचन व्यक्त कर प्रत्येक परिजन के शीश में रख कर स्वस्थ जीवन, लंबी आयु तथा समृद्धि की कामना की जाती है। आशिर बचन के बोल होते हैं-
“जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यू छन तक, गंग ज्यु में पाणि छन तक,
यो दिन और यो मास भैंटने रइये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो,
जी रये, जागि रये, यो दिन यो बार भेंटने रये।”
हरेला त्यौहार के दिन घर-परिवार के बच्चों द्वारा मुख्य प्रवेश द्वार सहित अन्य दरवाजों व खिड़कियों के संघाडों (चौखट) में हरेले के तिनकों को शुद्धता के प्रतीक गाय गोबर से चिपकाया जाता है। समस्त घर-परिवार की खुशहाली की कामना की जाती है।
विश्व की व्यापक लोक संस्कृति में हरियाली को बचाये रखने के लिए कुछ न कुछ व्यवस्थाएं अवश्य बनायी गयी हैं। यदि इन व्यापक लोक संस्कृतियों को प्रकृति से जोड़कर जीने का आधार बनाया जाय तो निश्चित ही हरियाली भी बचेगी तथा जीवन का आनन्द भी कई गुना बढ़ जायेगा। इसी सोच के तहत इस वर्ष 2024 में हरेला पर्व को व्यापक जन आंदोलन के रूप में मनाए जाने को लेकर उत्तराखंड सरकार तथा केंद्र सरकार द्वारा हरियाली का तीव्र गति से संवर्धन करने हेतु एक्शन प्लान भी तैयार किए गए हैं। उत्तराखंड राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक जिले की पौंधशालाओं में पर्याप्त संख्या में पौंधों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की पूरी तैयारी की गई है। प्रत्येक जिले में आबादी के सापेक्ष वृक्षारोपण का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। शहरी क्षेत्रों में नगर वन विकसित करने तथा हरेला वन विकसित करने व उनकी देखभाल करने की ओर कदम बढ़ाए गए हैं। ग्राम पंचायतों के लिए वृक्षारोपण के कार्यक्रम निर्धारित किए गए हैं।
केंद्र सरकार द्वारा इस वर्ष हरेला पर्व की थीम “पर्यावरण की रखवाली, घर-घर हरियाली, समृद्धि और खुशहाली” रखा गया है। तय किया गया है, हरेला पर्व के अंतर्गत मुख्य रूप से फलदार प्रजाति के 50% एवं इतने ही चारा प्रजाति के पौंधो को रोपित किया जायेगा। केंद्र सरकार की योजनानुसार 2024-25 में किया जाने वाला विभागीय व वृहद वृक्षारोपण एवं हरेला कार्यक्रम के अंतर्गत रोपित किए जाने वाले वृक्षारोपण में ‘एक पेड़ मां के नाम’ शीर्षक का प्रयोग किया जा रहा है।
धरती की हरियाली को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए उत्तराखंड के लोकपर्व हरेले की दूरगामी महत्ता को समझ राज्य व केंद्र की डबल इंजन सरकार का ध्यान जरुर आकर्षित हुआ है। किए गए व्यापक पर्यावरण संरक्षण नीति नियोजन के तहत लाखों-करोड़ों पेड़ रोपे जाने की सोच भी जगी है, नीति नियोजन भी किया गया है। परंतु डबल इंजन की सरकार को चाहिए सबसे पहले उत्तराखंड के हरे-भरे जंगलों में वर्ष के अधिकतर महिनों में लगने वाली भयावह आग से ध्वस्त हो रहे हजारों हैक्टेयर जंगलों के लाखों-करोड़ों पेड़ों, दुर्लभ जड़ी-बूटियों व जल संरक्षण करने वाली वनस्पति की सुरक्षा तथा दावाग्नि से बढ़ रहे तापमान व बढ़ते तापमान से पिघल रहे हिमालयी ग्लेशियरों को बचाने के लिए वृहद स्तर पर इच्छा शक्ति जगाकर नीति नियोजन करे, अंचल के जगलों को प्रतिवर्ष लगने वाली भयावह आग से बचाए। जिस दिन उत्तराखंड के जंगल आग से निजात पा जायेंगे, समझा जाएगा हरेले लोकपर्व का दूरगामी महत्व डबल इंजन की सरकार ने जान लिया है, समझ लिया है।
‘अपनी धरोहर’ संस्था से जुड़े सैंकड़ों पर्यावरण प्रहरियों का भी दायित्व बनता है वे राष्ट्रीय स्तर पर पेड़ लगाने का अपना परोपकारी अभियान जारी रखे, साथ ही डबल इंजन की सरकार पर भी उत्तराखंड के जंगलो को आग से बचाने हेतु नीति-नियोजन करने हेतु दवाब बनाए।