राष्ट्रीय

सियासी मुद्दों के चुनावी सिलेबस का एग्जाम होगा कर्नाटक चुनाव में

निम्मी ठाकुर ।कर्नाटक चुनाव की घोषणा हो चुकी है। कहा जाए तो यह उन मुद्दों के लिए एक बोर्ड एग्जाम है, जो इन दिनों राजनीति के सिलेबस में है। अर्थात, भाजपा, कांग्रेस, जदएस और क्षेत्रीय दलों जिन मुद्दों पर काम कर रहे हैं उन सबका टेस्ट इस चुनाव में हो जाएगा। जिस दल के मुद्दे इस चुनाव में पास हो गए या फिर विरोधी दल के मुद्दे यदि फेल हो गए तो फिर 2024 के लोकसभा चुनाव का सिलेबस तैयार समझो।

मोदी सरकार और उनकी पार्टी (भाजपा) पिछले लगभग नौ साल के दौरान हुई चुनावी जीत को सरकार की नीति और संगठन की विचारधारा की जीत बताती आई है। इसमें कितना दम है यही तो कर्नाटक के नतीजे बताएंगे। केंद्र और राज्य सरकार यह दावा कर रही है कि बड़ी संख्या में केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ मुस्लिम मतदाताओं तक भी पहुंचा है। भाजपा दावा कर रही है कि, पार्टी ने मुस्लिम वोटरों तक भी पैठ बना ली है। ऐसे में चुनाव नतीजे यह साबित करेंगे कि पिछली बार 5 फीसदी मुस्लिम वोट पाने वाली भाजपा कांग्रेस की 78 और जेडीएस की 18 फीसदी मुस्लिम वोटों को काटने में सफल होती है या नहीं। पिछले चुनाव में भाजपा ने राज्य की 166 ग्रामीण और किसान बाहुल्य सीटों में 74 पर जीत हासिल की थी जबकि कांग्रेस 57 और जेडीएस सिर्फ 33 सीट जीत सकी थी। यहां डबल इंजन सरकार की इस दावे की परख हो जाएगी कि उसने ग्रामीण इलाकों के लोगों को (खासकर गरीब) को सबसे ज्यादा लाभ पहुंचाया है। इन्ही 166 सीटों पर किसानों की तादाद भी सबसे अधिक है। ऐसे में किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं का लाभ भाजपा को मिला या नहीं इसकी परख चुनाव में होगी।

 

कर्नाटक के सियासी मामलों के जानकरों का कहना है कि, राज्य में आदिवासी, किसान, दलित, ओबीसी, मुस्लिम, प्रवासी, आईटी इंडस्ट्रीज में काम करने वालों की संख्या सभी विधानसभा सीटों पर पॉकेट वाइज अच्छी है। इसलिए चुनाव में पॉकेट वाइज वोट शेयर क्या रही इसकी समीक्षा से आने वाले चुनाव के सियासी मर्म की अच्छी समझ बन सकती है। राज्य में एक अहम बात यह भी है कि यहां लिंगायत, वोक्कालिग्गा और कुरबा समुदाय के मठ चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे में जब येदियुरप्पा सक्रिय राजनीति में नहीं हैं तो यह देखना दिलचस्प होगा कि लिंगायत वोट भाजपा के साथ एकजुट है या नहीं। इसी तरह डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। ऐसे में जेडीएस के वोक्कालिग्गा वोटबैंक पर कांग्रेस कितना प्रभाव छोड़ती है यह देखना होगा और कुरबा तथा वोक्कालिग्गा वोट एक साथ आए या नहीं यह भी पता चलेगा।

 

राज्य में हिजाब का मुद्दा हो या फिर पीएफआई से जुड़े तंत्र का या फिर मुस्लिमों के लिए 4 फीसदी आरक्षण को खत्म करने का मुद्दा क्या इन सब से ध्रुवीकरण का माहौल बना या नहीं यह भी चुनाव नतीजे साबित करेंगे। भाजपा के स्तर पर यह चुनौती है कि, राज्य में उसके सबसे बड़े नेता बीएस येदियुरप्पा सक्रिय राजनीति में नहीं हैं। वह चुनाव का कमान तो संभाल रहे हैं लेकिन चेहरा वह नहीं है। येदियुरप्पा जब 2012 में भाजपा से अलग हुए थे तो पार्टी की जबरदस्त हार हुई थी। जीत तभी मिली जब येदियुरप्पा दोबारा भाजपा में आए। इस बार नेता के बिना भाजपा की यदि जीत होती है तो इससे पार्टी की विचारधारा का समर्थन माना जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होने पर नेता के बिना पार्टी की विचारधारा जीत दिला जाए यह अवधारना टूटेगी जिसका असर इस साल अन्य राज्यों में होने वाले चुनाव पर भी पड़ सकता है।

 

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