विख्यात उत्तराखंडी होली का दिल्ली प्रवास मे जनमानस के बीच राग-रंग
सी एम पपनैं
आधुनिक दौर में परंपरागत संस्कृति का क्षय हो रहा है, लेकिन दिल्ली एनसीआर मे रच बस गए उत्तराखंडी प्रवासी बन्धुओ द्वारा अंचल की स्मृद्ध सांस्कृतिक होली गायन परंपरा को छोड़ा नही गया है। उत्तराखंडी प्रवासी बहुल इलाकों मे छुटपुट रूप से प्रवासी जन इकठ्ठा होकर, बैठ होली गायन की महफिल सजा, होली के गूंजते गानों में सरावोर हो, विभिन्न राग आधारित शास्त्रीय गायन होली परंपरा परिपाठी को संजोए हुए हैं। इस मुहीम मे उत्तराखंडी प्रवासी महिलाऐ भी पीछे नही रही हैं। महिलाओं द्वारा आयोजित होली गायन बैठकों में श्रंगार रस गीतों की बहुलता होती है।
उत्तराखंडी प्रवासी जनो द्वारा आयोजित होली आयोजनों मे मौजूद पारंपरिक परंपराओ और शास्त्रीय राग-रागनियों मे डूबी होली गायन के अवसर पर विभिन्न समाजो से जुड़े प्रबुद्ध संस्कृति प्रेमियों को होली गायन से जुड़े गीत-संगीत मे रम कर गाते-झूमते व सराहते देख सकुन मिलता है।
उत्तराखंड के प्रवासी बन्धुओ के लिए दिल्ली प्रवास मे होली खुशियों की सौगात लेकर आती है। अंचल के प्रवासी जनों के लिए होली रंगों के साथ-साथ रागों के संगम का अनूठा महापर्व है। दो माह तक प्रवासी बन्धु अपने घरों मे बैठकी होली का उत्साह पूर्वक आयोजन कर न सिर्फ भरपूर आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं, उत्तराखंड की इस समृद्ध लोकगायन विधा का संवर्धन व संरक्षण भी करते नजर आते हैं।
उत्तराखंड की बैठकी व खड़ी होली को सांस्कृतिक विशेषता के लिए पूरे देश में जाना जाता है। विभिन्न रागों मे शास्त्रीय गायन बैठकी होली मे ब्रज के साथ-साथ उर्दू का भी प्रभाव झलकता है। इस गायन लोक विधा ने हिंदुस्तानी गीत-संगीत को समृद्ध करने के साथ-साथ समाज को एक नई समझ भी दी है। इस विशेषता के कारणवश इस होली का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है।
समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं के नाते उत्तराखंडी गायन होली का प्रचलन व ख्याति सिर्फ उत्तराखंड तथा दिल्ली मे प्रवासरत उत्तराखंडियो तक ही सीमित न रह कर बढ़ते भू-मंडलीकरण के दौर मे राष्ट्रीय व अन्तर्रराष्ट्रीय फलक पर भी उत्तराखंड के प्रवासी जनों के साथ-साथ अन्य समाज के लोगों के बीच भी प्रभावशाली पैठ जमाए हुए है।
उत्तराखंड की बैठकी होली कद्रदानो व कलाकारो दोनों का साझा मंच रहा है। दिल्ली प्रवास मे उत्तराखंडी होली का शुभारंभ देश के गृहमंत्री रहे भारत रत्न स्व.पंडित गोबिंद बल्लभ पंत के सरकारी आवास पर आयोजित होने वाले होली समारोह से माना जाता है। जिसका क्रम नब्बे के दशक तक लाल किले के प्रांगण तक पहुच, निर्बाध चलायमान रहा। प्रति वर्ष बिना आयोजको वाले इस होली उत्सव का समापन उत्तराखंड के प्रवासी जनों द्वारा छलड़ी के दिन लालकिले के प्रांगण मे सूर्य अस्त होने के साथ कर दिया जाता था।
सन 1976 से मंडी हाउस स्थित श्रीराम भारतीय कला केंद्र द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित ख्यातिप्राप्त राष्ट्रीय होली महोत्सव जो विगत 2015 तक आयोजित किया जाता रहा, उक्त होली उत्सव में उत्तराखंड की सु-विख्यात सांस्कृतिक संस्था पर्वतीय कला केंद्र द्वारा उत्तराखंड की पारंपरिक खड़ी होली ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली धाक जमाए रखी थी।
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते उनके आवास पर आयोजित होली उत्सव मे भी पर्वतीय कला केंद्र को खड़ी होली की धूम मचाने का अवसर मिला था। उक्त खड़ी होली मे अटल सरकार के कैबिनट मंत्रियों, विपक्षी दलों के नेताओ, अनेक राज्यो के मुख्यमंत्रियों तथा कैबिनेट सचिव तथा अन्य जानेमाने पत्रकारो को नाचते-झूमते देखा जा सकता था। विश्व के अनेक देशों मे भी इस संस्था ने उत्तराखंड की पारंपरिक होली का मंचन सु-विख्यात रंगमंच संगीत निर्देशक स्व.मोहन उप्रेती के निर्देशन में प्रदर्शित कर, होली गायन की इस समृद्ध विधा को अंतरराष्ट्रीय फलक पर ख्याति दिलवाई थी।
पारंपरिक तौर पर उत्तराखंड के पहाड़ी अंचल मे होली पर्व को बैठकी होली व खड़ी होली के साथ-साथ बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप मे तथा पहाड़ो मे ठिठुरती कड़क ठंड के अंत और खेतो मे नई बुआई के मौसम की शुरुआत के प्रतीक रूप मे उमंग व हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।
पारंपरिक तौर पर उत्तराखंड मे माह पौष से बैठकी गायन होली का शुभारंभ कर फाल्गुन तक गाया जाता है। जिसके तहत पौष से बसंत पंचमी तक आध्यात्मिक तथा बसंत पंचमी से शिव रात्रि तक अर्धश्रंगारिक और उसके बाद श्रंगार रस में डूबी होली गायन की परंपरा का प्रचलन रहा है। होली गायन के रसो मे भक्ति, बैराग्य, विरह, कृष्ण गोपियों की हंसी ठीठोली, प्रेमी-प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ इत्यादि के रसो का तानाबाना होता है। इस होली गायन मे वात्सल्य, श्रंगार व भक्ति रस की एक साथ मौजूदगी इसकी मुख्य विशेषताओं मे स्थान रखती है।
गायन मे शास्त्रीय राग दादरा और ठुमरी ज्यादा प्रचलित हैं। होल्यार हारमोनियम के मधुर सुरो, तबले व हुड़के की थाप तथा मंजीरे की खनक पर बैठकी होली मुक्त कंठ से भाग लगा गाते हैं, जिस पर श्रोता गण झूम उठते हैं। राग धमार से होली गायन का आह्वान किया जाता है। राग श्याम कल्याण से बैठकी होली की शुरुआत व राग भैरवी से होली बैठकी के समापन की परंपरा का पालन होल्यारों द्वारा किया जाता है।
राग आधारित शास्त्रीय गीत-संगीत बैठकी होली परंपरा की शुरुआत पंद्रहवी शताब्दी मे चंपावत के चंद राजाओं के महल तथा इसके आसपास के क्षेत्रो से मानी जाती है। माना जाता है, चंद वंश के राज्य विस्तार के साथ-साथ शास्त्रीय होली गायन विधा का भी क्षेत्र विस्तृत होता चला गया। जिसका मुख्य केंद्र बाद के वर्षो मे अल्मोड़ा बन गया। स्मृद्धि की ओर बढ़ यह गायन विधा एक परंपरा सी बन गई, जिसका पालन कद्रदान व कलाकार आयोजित होली महफिलों मे वर्तमान तक करते चले आ रहे हैं।
बैठकी होली उत्तराखंड के लोकगीत-संगीत मे रची बसी होने व दिल्ली मे दिल्ली सरकार द्वारा गठित कुमांऊनी, गढ़वाली व जौनसारी बोली-भाषा अकादमी गठन के बाद पारंपरिक होली गायन की बोली-भाषा भविष्य मे ब्रज की ही बनी रहेगी? बंदिशे राग-रागनियों पर ब्रज मे ही गाई जायेंगी? महफिल में बैठा व्यक्ति बंदिश, जिसे भाग लगाना कहा जाता है, ब्रज मे ही लगाई जायेंगी? भविष्य मे प्रवासी उत्तराखंडियो के समक्ष सवाल खड़े करेंगे, ऐसा समझा जा सकता है। क्योकि भावी प्रवासी पीढ़ी के समक्ष अपनी बोली-भाषा के संरक्षण व संवर्धन का महत्वपूर्ण मसला बड़े स्तर पर उभर कर जरूर आयेगा। क्योकि बैठक होली में शामिल श्रोता वह स्वयं खुद है तथा होल्यार भी स्वयं खुद है।
उम्मीद की जा सकती है, भविष्य में दिल्ली प्रवास मे उत्तराखंड के जागरूक प्रवासी बन्धु अपनी बोली-भाषा को होली गायन मे प्राथमिकता प्रदान कर उसके राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संवर्धन के भागीदार बनेगे।