प्रकृति पर अत्याचार
दहक रही है पूरी धरती
दहक रहा है जंगल जंगल
बचा लो अब देवभूमि को
हो न जाये कहि अमंगल
देवभूमि की छटा ही खो गई
चारो ओर मचा हाहाकार
अग्नि का ये विशाल दानव
देवभूमि का कर रहा संहार
इन्तेहा हो गयी है अब
होश मे आओ ए वन माली
प्रकृति की सुंदर हरियाली
बन चुकी है श्मशान सी काली
जल चुके हैं घरौंदे उनके
बेजुबान जो थे बेचारे बचाओ इनके प्राणों को भी हम ही तो इनके रखवाले
बृक्ष बेचारे खड़े खड़े ही
जल कर के बन गये कंकाल
पुकार रहे ए निर्दयालु तुझको
सहन न हो ये तपन की मार ,
कौन हैं ये मूर्ख मानव
जो अपनी ही जड़ रहे उखाड़
कौन कर रहा ये शर्वनाश
क्यों जल रही धरा इस हाल,
अपना ही अधिकार न समझो
बेजुबान भी इसके हकदार
कोई तो अब इसकी सुध लो
मत मारो इसे तपन की मार
वरना एक दिन आजायेगा
जब उजड़ जाएगी ये धरा विशाल
कहने को फिर पेड़ न होंगे
न होगी फिर ये हरियाली
मिट्टी हो रही है काली
हवा हो गयी है मतवाली
सुख रही है डाली डाली
मिट्टी, हवा, और हरियाली
इनसे ही जीवन मे खुशहाली
आओ बचा ले हम इन सबको
बनके इन वनों के माली ।
लेखक – शिक्षक विकास कुमार
ग्राम गढ़कोट (कल्जीखाल )