आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है
लेखिका — शिक्षिका हैराल्ड एकेडमी घण्डियाल
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है
कभी चौराहों में पड़ी दिखती है
तू कभी गैस के बुलबुलों में बिकती है।
अपनों के आंसुओं में घुलकर
जलती हुई चिमनियों की दीवारों पर,
राख सी खाक हो गई है।
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।
कभी चौराहों में पड़ी दिखती है
तू कभी गैस के बुलबुलों में बिकती है।
अपनों के आंसुओं में घुलकर
जलती हुई चिमनियों की दीवारों पर,
राख सी खाक हो गई है।
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।
सिसकते हुए ख्यालों में तो कभी,
उखड़ती सांसों की वयालो में,
बेबसियो की चादरों में लिपटी,
तू कभी दुर्भाग्य के ठेलों में
निस्तेज सी हो गई है।
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।
उखड़ती सांसों की वयालो में,
बेबसियो की चादरों में लिपटी,
तू कभी दुर्भाग्य के ठेलों में
निस्तेज सी हो गई है।
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।
भागती है अपनों से क्यों,
क्यों रूठी है सपनों से तू।
छोड़ कर सबको तू क्यों,
महंगे अखबारों की चंद सस्ती सी लाइनों में खो गई है।
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।
क्यों रूठी है सपनों से तू।
छोड़ कर सबको तू क्यों,
महंगे अखबारों की चंद सस्ती सी लाइनों में खो गई है।
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।
वो चहचहाती हुई गलियां सूनी हैं मुस्कुराने को तेरे,
वह सावन के झूले,
कच्ची इमरतियां वो पके आम रसीले,
तरसते हैं रोज शाम सवेरे।
माटी नहीं ,तू नहीं निसप्राण,
है तू कितनी मूल्यवान।
फिर नादान सी हाथों की लकीरों में
फिसलती रेत सी क्यों हो गई है,
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।
वह सावन के झूले,
कच्ची इमरतियां वो पके आम रसीले,
तरसते हैं रोज शाम सवेरे।
माटी नहीं ,तू नहीं निसप्राण,
है तू कितनी मूल्यवान।
फिर नादान सी हाथों की लकीरों में
फिसलती रेत सी क्यों हो गई है,
आजकल ए जिंदगी तू कितनी सस्ती सी हो गई है।