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उपराष्ट्रपति चुनाव में सी पी राधाकृष्णन बनाम न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी 

लेखक–अवधेश कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

भाजपा नेतृत्व वाले राजग के सीपी राधाकृष्णन के विरुद्ध आईएनडीआईए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाने पर कांग्रेस का तर्क है भाजपा ने संघ पृष्ठभूमि वाले को उम्मीदवार बनाया जबकि हमने ऐसे न्यायमूर्ति को सामने लाया है जिनकी संविधान के प्रति प्रतिबद्धता है। इस तरह कांग्रेस इसे विचारधारा से जोड़ने की राजनीति की है । आईएनडीआईए में साफ था कि किसी राजनीतिक दल या वैसे चेहरे के पक्ष में पूरे समूह का वोट सुनिश्चित मानना कठिन होगा। बी सुदर्शन रेड्डी भी दक्षिण के हैं और संयुक्त आंध्र के होने के कारण विपक्ष की सोच है कि भाजपा के सहयोगियों तेलुगूदेशम, जन सेना के साथ तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति के सामने दुविधा पैदा होगी। दोनों सदनों के अंकगणित को देखें लोकसभा की प्रभावी सदस्य संख्या 542 और राज्यसभा की 240 है। तो उपराष्ट्रपति चुनाव में कुल मतदाताओं की संख्या हुई, 782। राजग की 422 संख्या के अनुसार सीपी राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति बनना प्राय: निश्चित है।

आइए अब उम्मीदवारों के पीछे की रणनीति , उनकी योग्यताएं और संदेशों को समझें। चंद्रपुरम पोन्नुसामी राधाकृष्णन के व्यक्तित्व में विवादों का स्थान नहीं रहा है। इसलिए उनके विरोध के लिए कोई तथ्य नहीं मिल सकता। वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल के पूर्व झारखंड के भी राज्यपाल रहे तथा इसी बीच कुछ समय के लिए तेलंगाना और पुडुचेरी का भी अतिरिक्त प्रभार उनके पास रहा। लगातार जनता के बीच जाने के लिए झारखंड एवं महाराष्ट्र में यात्राएं करने के बावजूद राजनीतिक विवाद न होना या राजनीतिक दलों द्वारा प्रश्न खड़ा न किया जाना उनकी व्यवहारिक विवेकशीलता का प्रमाण है। वह 1998 और 1999 में दो बार तमिलनाडु के कोयंबटूर से लोकसभा सांसद रह चुके हैं। इसलिए कोई उन्हें संसदीय प्रणाली से भी अनभिज्ञ नहीं कह सकता। उनका राजनीतिक कैरियर लगभग पांच दशक का है। वे‌ तमिलनाडु में भाजपा के सचिव और अध्यक्ष रह चुके हैं। वैसे तमिलनाडु से ही सर्वपल्ली राधाकृष्णन पहले उपराष्ट्रपति और बाद में राष्ट्रपति बने जो न कभी किसी सदन के सदस्य रहे और न किसी दल से जुड़े थे। हां तमिलनाडु से दूसरे उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति बीबी गिरी अवश्य गवर्नर का पद संभाल चुके थे। इसलिए विपक्ष के पास इस आधार पर भी आलोचना का कोई कारण नहीं है।

सुदर्शन रेड्डी आंध्रप्रदेश और गुवाहाटी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे और 2007 से 2011 तक उच्चतम न्यायालय में । नवर्तमान तेलंगाना की कांग्रेस सरकार ने जब सामाजिक ,आर्थिक, शैक्षणिक, जातीय सर्वेक्षण का फैसला किया तो उसके रिपोर्ट के लिए सुदर्शन रेड्डी की अध्यक्षता में ही एक समिति बनाई थी। इस तरह कांग्रेस के साथ उनका संपर्क था। हालांकि जब वे गोवा के लोकायुक्त थे तब कांग्रेस ने विरोध किया था। उस समय उनकी नियुक्ति भाजपा सरकार की ओर से हुई थी और इसलिए कांग्रेस में उन्हें पक्षपाती माना था। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने उन्हें सिविल लिबर्टीज यानी नागरिक स्वतंत्रता का झंडा उठाने वाला न्यायाधीश कहां है। छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा के विरुद्ध जनता के सलवा जुडूम संघर्ष को उन्होंने असंवैधानिक करार देकर प्रतिबंधित किया था । इस फैसले की तब से आज तक आलोचना हो रही है क्योंकि इसे जनता की अपने जीवन और संपत्ति की रक्षा तथा हिंसा के द्वारा इन्हें नष्ट करने वालों के विरुद्ध संघर्ष का अधिकार छीना गया था। तो इसका संदेश क्या हो सकता है? शीर्ष स्तर पर न्यायाधीश की योग्यता छोड़ दें तो राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस या किसी पार्टी के समर्थकों, नेताओं , कार्यकर्ताओं आदि के बीच इसका कोई विशेष संदेश नहीं गया होगा। कांग्रेस इसे विचारधारा का विषय भले बनाए उसके या आईएनडीआईए दलों के लिए इसमें जनता के बीच आकर्षक राजनीतिक संदेश देने का पहलू नहीं है। कांग्रेस ने पिछली बार जगदीप धनखड़ के विरुद्ध अपनी नेत्री मारग्रेट अल्वा को खड़ा किया था। सो यह दावा नहीं कर सकते कि ऐसे पद के लिए राजनीति से परे हटकर विचार करते हैं। ऐसा लगता है कि विपक्षी दलों के मत दूसरी ओर जाने से रोकने के लिए सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया गया है।

दूसरी ओर साफ दिखता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने उम्मीदवार पर गहराई से मंथन किया है। प्रधानमंत्री मोदी अपनी नीतियों और व्यवहारों से तमिल बनाम अन्य, उत्तर बनाम दक्षिण के भेद को समाप्त करने के लिए सतत कोशिश कर रहे हैं। प्रधानमंत्री संपूर्ण भारत के साथ तमिल संस्कृति और वहां के आस्था स्थलों के जुड़ाव को अलग-अलग तरीकों से रेखांकित करते रहे हैं। काशी तमिल संगम तथा महत्वपूर्ण तमिल ग्रंथों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद आदि से तमिल राजनीति के उत्तर दक्षिण, आर्य द्रविड़ ,तमिल गैर तमिल जैसी विभाजनकारी राजनीति का उत्तर देने की भी प्रभावी कोशिश कर कर रहे हैं। भाजपा तमिलनाडु में अपना प्रभावी अस्तित्व बनाने के लिए सक्रिय है। इस दृष्टि से राधाकृष्णन का तमिल और पिछड़ा होने का राजनीतिक अर्थ समझ में आता है। एक राजनेता होते हुए भी राज्यपाल के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन कर राजनीति को नहीं आने देना उनका ऐसा गुण है जिसकी प्रशंसा दोनों राज्यों के भाजपा विरोधी पार्टियां करतीं हैं। दिन रात भाजपा के विरुद्ध बयान देने वाले शिवसेना उद्धव के नेता संजय राउत ने कहा कि उनका एक अविवादित व्यक्तित्व है। झारखंड से भी उनके बारे में यही आवाज है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक आंध्र की पार्टियों से सुदर्शन रेड्डी को समर्थन देने की घोषणा नहीं है जबकि जगनमोहन रेड्डी राधाकृष्णन के समर्थन का बयान दे चुके हैं।

वैसे राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाने का भाजपा की दृष्टि से महत्वपूर्ण संदेश दूसरे हैं। पहले सत्यपाल मलिक और बाद में जगदीप धनखड़ के अनुभव से सीख लेते हुए ऐसा लगता है कि भाजपा पूरी तरह परीक्षित नेता को ही महत्वपूर्ण स्थानों पर लाने की नीति की ओर अग्रसर हो रही है। ऐसा होता है तो यह नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल का महत्वपूर्ण पड़ाव होगा। पिछले लोकसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं और समर्थकों के असंतोष के पीछे यह एक प्रमुख कारण था जिसके क्षति भाजपा को उठानी पड़ी । राधाकृष्णन की पूरे राजनीतिक जीवन में वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट रही है। तमिलनाडु में तमिल और सनातन विभाजन के विरुद्ध तथा सनातन संस्कृति के पक्ष में वे प्रखर रहे हैं। कोयंबटूर में 1997 के दंगों के बीच उनकी भूमिका को हिंदू संगठनों ने काफी सराहा। जिन लोगों को पिछली सदी के अंतिम दशक में तमिलनाडु के अंदर बढ़ते मुस्लिम कट्टरवाद , दंगों और आतंकवाद की जानकारी है वे उनके कार्य को भली-भांति समझते हैं। 18 फरवरी 1998 को लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान लालकृष्ण आडवाणी की सभा के कुछ समय पूर्व सभा स्थल से लेकर जहां-जहां से सभा में लोग आने थे श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों ने पूरे प्रदेश को हिला दिया। राधाकृष्णन तब वहां से भाजपा के उम्मीदवार थे। तत्काल 58 लोग मारे गए एवं 200 के आसपास घायल हुए थे। राधाकृष्णन ने घायलों से लेकर मृतकों के परिवारों की सहायता तथा आतंकवादियों एवं उनके समर्थकों के विरुद्ध जिस तरह निर्भीक होकर काम किया उससे उनका व्यापक जन समर्थन बढ़ा । वह करीब डेढ़ लाख मतों से विजित हुए। उनका आत्मविश्वास इतना बढ़ गया था कि 1999 के मध्यावधि चुनाव में उन्होंने घोषणा ही कर दिया कि यहां से भाजपा को वोट मांगने की आवश्यकता नहीं। भाजपा के शुद्ध वैचारिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति के पक्ष में संपूर्ण राजग का एकजुट होना साबित करता है कि नरेंद्र मोदी द्वारा सत्ता संभालने के बाद राजनीति भाजपा के संदर्भ में कहां से कहां पहुंच गई है। यह राजग के भीतर वैचारिक द्वंद्व की संभावनाओं को तत्काल खारिज करने वाला संदेश है। वैसे भी बिहार चुनाव के वक्त कोई पार्टी इस आधार पर दगा करेगी यह कल्पना ही बेमानी है। महाराष्ट्र में भी शिवसेना शिंदेऔर राकांपा अजीत पवार द्वारा किसी तरह के विचलन की संभावना नहीं दिखती। चंद्रबाबू नायडू

ने 2019 में भूल कर दिया था जिसका परिणाम उनको भुगतना पड़ा। काफी संघर्ष के बाद वे सत्ता में लौटे है। इस स्थिति में वे विपक्ष का साथ दे देंगे ऐसी कल्पना कठिन है। इसके उल्ट क्या महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की मुलाकात का असर हो सकता है? प्रियंका चतुर्वेदी ने प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात की अपनी एक तस्वीर स्वयं सार्वजनिक किया। कांग्रेस द्वारा इस विचारधारा की लड़ाई बताने के बाद अगर भाजपा की वैचारिक प्रतिबद्धता वाले उम्मीदवार के पक्ष में दूसरी ओर का कुछ वोट भी आता है तो यह भाजपा नेतृत्व के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। वस्तुत: यह भारत की भावी राजनीति के लिए दिशा संकेतक होगा।

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