बहुआयामी दृष्टिकोण से गुलजार व्यक्तित्व : डॉ0 वैदिक*
राजेन्द्र प्रसाद
प्रसिद्ध चिंतक, लेखक, बुद्धिजीवी, अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक जी से मेरा प्रथम परिचय पीटीआई-भाषा के संपादक के तौर पर करीब तीस साल पहले हुआ था। पता नहीं चला कि उनसे एक मुलाकात जिंदगी-भर के रिश्तों में कब तब्दील हो गई। जब भी उनके निवास के पास गुजरता तो मिलने की कसक अपने आप कराहती प्रतीत होती और उनसे मिले बगैर यात्रा अधूरी लगती।
14 मार्च को उनका जाना विशेषकर हिंदी पत्रकारिता के एक युग के स्तंभ के ढह जाने जैसा है। निस्सन्देह वे हिंदी पत्रकारिता को सुदृढ़ व संपन्न बनाने के संकल्प के साथ जीवन-समर में कूदे और उसका प्रकटीकरण व परिस्थितियों के मुताबिक नवीनीकरण भी अपने ढंग से किया। उन्होंने बुद्धिबल से अपनी रुचि को नई एवं दमदार परिभाषा से गुंजायमान किया। यथार्थ में स्वधयं को पहचानने और शक्ति–संपन्न समझने की जरूरत है। उनकी मान्यता थी कि परायों को अपना बनाने का नाम है पत्रकारिता की सामाजिकता। सामाजिकता का कार्य सनातन काल से हो रहा है और यह यज्ञ आगे भी अनंतकाल तक चलेगा। जिस प्रकार ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के भारतीय चिंतन का संबंध किसी वर्ग से नहीं, अपितु पूरी धरा से है, उसी प्रकार समाज की परिधि में जीवन का केवल एक अंग नहीं, बल्कि समग्र जीवन आता है। राजनीति, अर्थ, शिक्षा, संस्कृंति, अध्यात्म, समाज-रचना आदि सभी क्षेत्रों में जीवन-मूल्यों के आधार पर नव-निर्माण सेवा का बहुआयामी अर्थ है।
वे केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि ऐसी फलती-फूलती विचारधारा के सृजक, वाहक और मजबूत योद्धा थे जो गंगा की तरह विभिन्न नदियों और धाराओं को अपनेपन से समाहित कर जीवन के संघर्षों से तपकर अथाह सागर में विलीन हो गई। अपने पीछे ऐसी अमिट और अनूठी छाप छोड़ गए, जो प्रेरणा का स्रोत है और विभिन्न धाराओं का सम्मान करने वाला जीता-जागता मन-मस्तिष्क भी। जीवन में सामाजिकता की बात भले ही कुछ लोगों को अटपटी लगे, किंतु क्या यह सच नहीं है कि मन, वचन तथा कर्म से इस मामले में आज के युग में टोटा मालूम होता है? समाज-चरित्र की उपजाऊ जमीन पर ही व्यक्तियों के चिंतन का बीजारोपण, पोषण और फल होता है। वे अमूमन कहते थे कि अपनी आंखों के सामने चरित्र का ह्रास होते देखा है। यकीनन समाज में गिरते चरित्र की पीड़ा से मन की आंखें भीग जाती हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि चरित्र की दृढ़ता व्यक्तित्व को बचाती है। सिद्धांतहीनता का कोई सही गन्तव्य और मन्तव्य नहीं होता। अपने काम को सकारात्मक दिशा देने का नाम भी समाज सेवा है। समाज पहले होना चाहिए, बाकी सब बाद में।
उनका वाणी-कौशल इतना प्रबल, प्रभावी व ओजपूर्ण कि बात निर्भीकता से उस तरह रखना कि सुनने वाला बात ध्यान से सुने और उत्तर के लिए भी प्रेरित हो। संवाद का ढंग इतना निराला कि कड़क और खरी बात सहजता से कहकर विशेष बनने की कला को परवान चढ़ाना तो कोई उनसे सीखे। हरदिल अजीज, हंसमुख व्यक्तित्व के धनी और हाजिर-जवाबी में वे बहुत ही बेजोड़ और विलक्षण थे। वे जिंदगी के हरेक तरह के पड़ाव से गुजरे, खट्टे-मीठे अनुभव उनका सदा पीछा करते रहे, लेकिन उसका उपयोग उन्होंने अपने व्यक्तित्व की आभा को चेतन और समृद्ध करने में किया। वे पाखंडी लाबादा ओढ़ने में कतई आस्था नहीं रखते थे और स्प्ष्टतवादिता उनकी वाणी का देदीप्यनमान ध्वज थी।
जीवन के कई क्षेत्रों में खींची रेखाएं उनके व्यक्तित्व को कड़ी के रूप में जोड़ती और सींचती थीं। जो कल था, वो आज नहीं और आज है, वह कल नहीं रहेगा, लेकिन नाम की गंध सदैव गर्व से महकनी चाहिए। वे प्रखर पत्रकार के साथ कुशल वक्ता, प्रखर चिंतक, कूटनीति विशेषज्ञ, अंतर्बोधि रणनीतिज्ञ और विराट हृदयी थे। सरलता, वाक्पटुता, सहजता और प्रसन्नचित स्वभाव उनके व्यक्तित्व की बिखरी आभा थी। बात को सार रूप और प्रभावी ढंग से दिलों तक पहुंचाना की कला और कहीं से शुरू कर प्रसंग को दिलचस्प बनाकर कहीं और लक्षित कर विवेचना सौंदर्य का प्रकाश उनकी प्रतिभा को सदा निखारती व दमदार बनाती रही। वे सहजता से कहते थे कि देश को अगर मजबूत करना है तो हमें उदारता के साथ सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए। भटकने की नहीं, जागने की जरूरत है और तोड़ने की नहीं, जोड़ने की जरूरत है। राष्ट्र-चिंता जब-जब उनको झकझोरती तो वे कराहते प्रतीत होते थे। विशेषकर राष्ट्रीय कार्यों की बेहतरी में चिंतन उनके अंदर छुपी प्रतिभा को आलोकित करता है।
निर्विवाद सत्य है कि मौलिकता से पत्रकारिता उनकी कर्मभूमि बनी तो विशेषकर हिंदी को समृद्ध करने, उसको इस्तेमाल करने और हिंदी को देश की पहचान बनाने के साथ-साथ समस्त भारतीय भाषाओं के सम्मान की खातिर मिश्रित स्वर उनके कथनी व करनी में निर्बाध झलकते थे। उनके अनुसार पत्रकार अपने विचार कई कोणों से समाज और देश के सामने परोसता है और देश उनके विचारों को पढ़ने-गढ़ने और राय बनाने का काम करता है। यदि पत्रकार अपने दूरगामी दृष्टिकोण व विचार प्रतिभा से समाज व देशहित से जोड़कर चलता है तो उसका निरपेक्ष व बेबाक होना लाजिमी है, जो सही दिशा में ले जा सकता है। पत्रकारिता और समाज-सेवा के मिलन को वे शुभ मानते हुए कहते थे, ‘जब कोई पत्रकार सेवा करेगा तो वह अधिक कारगर होगी। सच्चे- पत्रकार का हृदय मानवीय संवेदनाओं से युक्त रहना चाहिए।’ उनमें देश के भविष्य की चिंता व तस्वीकर रचती-बसती और खनकती थी। उल्लेखनीय है कि समाज जितना जीवंत होगा, उसका उतना ही शक्तिशाली होना संभव है। दुर्भाग्य से सत्य की आवाज को झूठ के शोर से दबाने का सदा अनचाहा प्रचलन रहा है। तेजी से बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में उनकी खिन्नता का दर्द समझा जा सकता है।
विशुद्ध पत्रकारिता और साहित्य की विधा में रूचि बनाए रखना कोई सरल काम नहीं है। राष्ट्रीय और सामाजिक कार्यों में जुड़े रहकर सक्रियता से काम करना तो और भी दुर्लभ कार्य है। उनका कृतित्व प्रासंगिक, महत्वकारी और अर्थपूर्ण होने के साथ-साथ जीवन की उथल-पुथल से जोड़ता है। उनके मिले-जुले व्यक्तित्व की खनक उनकी कार्यशैली में अनुभूत होती रही। निस्संदेह उनके विचार उनके चिंतन-सागर की हिलोरे हैं और समय के साथ चलते हुए कुछ हद तक उससे आगे निकलने की दूरगामी कोशिश करते मालूम होते हैं। जीवन के अनुभव उनकी वाणी में रमते रहे। उन्होंने अपने व्यक्तित्व का श्रेष्ठतम पक्ष अपने साथी-संगियों के सामने प्रस्तुत किया, जिससे सीख लेने की महती आवश्यकता है। उनकी जीवन-शैली में परंपरागत मान्यताओं, सामाजिक और वैचारिक उथल-पुथल के भी दर्शन होते हैं। उन्होंने कई पड़ावों को जीते हुए खुद को चाकचौबंद और बुलंद किया। बदली परिस्थितियों की झलक और अंदाज उनमें सदा प्रतिबिंबित होते रहे। कहीं-कहीं उन्होंने सामाजिक विषयों में हर्ष-विषाद, विडंबना, रुढ़िवाद आदि पर कटाक्ष पर सहज भाव से ध्वनित कर कई बार यक्षप्रश्न भी खड़े किए। सामाजिक, सांस्कृरतिक, धार्मिक कार्यों से जुड़े सरोकार उनकी वैचारिकता में भिन्न-भिन्न तरीके से झलकते रहे। उनके टूटते-बनते कई महत्वपूर्ण विचार बिखरे-निखरे से दिखते हैं। सामाजिक जीवन की विसंगतियां और विशेषताएं उनके मर्म को यथार्थ का आइना दिखाती हैं और बिखरी हुई आभा को समेटती हैं।
मातृभाषा व स्वभाषा को वे प्रगति का आधार और जड़ से जुड़े रहने का संस्कार बताते थे और ‘देश में चले, देशी भाषा’ का नारा भी सदा रौशन करते रहे। देश-विदेश में सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ सामाजिक मंचों के माध्यम से उसके उत्थान के लिए अनवरत प्रयास किए। हिंदी को बढ़ावा देने में उनकी विशेष रूचि सदा जगी और सजी रहती थी। संस्कृति, नैतिकता, साहित्य, शिक्षा, पुरातन गौरव और मातृभाषा समृद्धि पर उन्होंने तथ्यपरक और मजबूत मंतव्य अनेकों मंचों पर व्यक्त किए। नैतिकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने बड़ी बात कही कि इंसान का संस्कार और ज्ञान किसी बड़े नाम व धन से भी कहीं अधिक बड़ा व प्रबल होता है। हम केवल अपने लिए न जिएं, बल्किर औरों के लिए भी जिएं। उनके मुखारविंद से व्यक्त बातें कई बार सूक्तियों की तरह झलकती थी।
उनके व्यक्तित्व की शक्ति उनकी उम्र को समद्ध व जाज्वल्यमान दिखाती रही और जब मौत ईमानदारी से उन्हें लेने आई तो वे एकांत में नि:शब्द होकर नश्वर संसार से अनंत की ओर बेखटके कूच कर गए। अजात-शत्रु की भांति हृदयस्थल में निजत्व बनाने वाले डॉ. वैदिक के देहावसान के अप्रिय समाचार पर एक बारी विश्वाास नहीं हुआ, लेकिन यथार्थ तो यथार्थ ही है। वे ऐसा शून्य छोड़कर गए जिसको भरना नामुमकिन है। वे उदारता से जिए और हमारे बीच प्रेरणा का मार्ग छोड़कर अनकहे चले गए। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका बहुआयामी व्यक्तित्व कुछ न कुछ कहता प्रतीत होता रहेगा। वे मतभिन्नता को स्वतंत्र अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण अंग मानते थे और वाणी से इतने उदार थे कि दूसरों की दिल खोलकर प्रशंसा करते थे। वे नए ढंग और कलेवर से अपने दिल की गहराइयों से सराबोर बात रखने की कला में अत्यंत माहिर थे। जुझारू व धुन के इतने पक्के कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी डिग्री की हिंदी माध्यम से मान्यता दिलवाकर ही चैन से बैठे और इस मुद्दे से उन दिनों संसद तक भी हिल गई थी। वे हिंदीवादी नहीं, बल्कि हिंदी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के अग्रदूत थे। वे भारतीय भाषाओं के विकास के लिए निरंतर आंदोलित रहे। वे उन लोगों से अलग थे, जो पदों की पहचान से जाने व माने जाते हैं, बल्कि वे खुद की शख्सियत के रूप में खुद ही रौशन करते गए और अपने-आप में एक संस्था की तरह जिए।
डॉ. वैदिक सब के है और सब उनके रहेंगे। उनके दिखाए मार्ग, विचार और सोच-विचार का ढंग हमें निरंतर उदार और सहजता की प्रेरणा देता रहेगा। वे भारतभूमि की माटी के सच्चे और बिरले सपूत थे और एक ऐसी लौ का हिस्सा। थे, जो न केवल दूसरों को रौशन करती थी, बल्कि खुद को समयोचित निखारने-तराशने-संवारने में भी तल्लीन रहती थी। आज के उथल-पुथल के दौर में समाज में उनके जैसा व्यक्तित्व का धनी होना असंभव तो नहीं, मुश्किल जरूर है। उनके धारदार व दुविधारहित चिंतन की राह से सज्जित अभिव्यक्ति की बेबाक-बेलाग शैली, जीने का अंदाज और मानवीय मूल्यों से परिपूरित आभा सदा गुलजार रहेगी। ये ज्योति अभी बुझी नहीं, जली है; उनकी आत्मा का हंस जरूर उड़ गया, लेकिन उनका कृतित्व-व्यक्तित्व सदा गुंजायमान रहेगा। किसी शायर ने ठीक ही कहा है:-
इंसान बिछुड़ता है, बस यादें याद रह जाती हैं,
जुबान बदल जाती है, बस बातें याद रह जाती हैं।