“आ रे प्रीतम प्यारे” की साहित्यिक प्रासंगिक व्याख्या
हास्य व्यंग्य लेख
साकलीन काव्य साहित्य में कुछ गीतों का विशेष योगदान रहा है, और उनके रचयिता को सलाम कहना चाहिए। यूँ तो कई साहित्यिक जल-कुक्कड़ों ने इन गीतों की तह में न जाकर उनकी गंभीरता और साहित्यिक समृद्धि को नकारते हुए उनके भविष्य और साहित्य में प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया है।
ऐसा ही एक गीत “राउडी राठौर” के काव्य संग्रह से लिया गया, जिसे सोनाक्षी सिन्हा और अक्षय कुमार जैसे साहित्य अनुरागियों ने अपनी भाव-भंगिमाओं से प्रस्तुत कर इसके सार को प्रकट करने का प्रयास किया है। ममता शर्मा और सरोश सामी ने इसे अपनी मधुर कंठ-वाणी से स्वरों में ढाला, और साजिद-वाजिद जैसे कविकारों ने इस गीत को रचना का रूप दिया। इस गीत का मुखड़ा है, “आ रे प्रीतम प्यारे”।
यह गीत एक विरहिणी के आह्वान को व्यक्त करता है, जो विरह की अग्नि में झुलस रही है। उसके मनोहारी भावों को जिस अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है, वह वाकई काबिले-तारीफ़ है। इस काव्य रचना की पूर्ण पंक्तियाँ आप “गूगल बाबा” से पूछ सकते हैं।
अभिभूत हूँ मैं..हमारे समाज की नैतिकता, यथार्थ और प्रतीकों का अद्भुत चित्रण । इसे सुनते हुए ऐसा लगता है मानो गीतकार ने अपने भीतर गुलज़ार, साहिर लुधियानवी और शैलेन्द्र की आत्मा को समेट लिया हो।
हालांकि, यहाँ यह भी कहना बाजिब होगा कि यह गीत “गीत” के नाम पर वह आधुनिक प्रयोग है, जहाँ “पल्लू” से लेकर “हुक्का” तक सबकुछ समकालीन बाजारवाद के हवाले हो चुका है।
यहाँ मैं इस गीत की कुछ पंक्तियों की प्रासंगिक व्याख्या करने का प्रयास कर रहा हूँ:
“आ रे प्रीतम प्यारे, बन्दूक में ना तो गोली मेरे”
यह पंक्ति विरहिणी के भीतर की तड़प को प्रकट करती है, जहाँ वह अपने प्रियतम को पुकारते हुए गहन भावनात्मक आवेग प्रकट कर रही है। यह पंक्ति सीधे-सीधे महिला सशक्तिकरण का प्रतीक है। नायिका यहाँ यह बताना चाह रही है कि उसका अस्त्र (बंदूक) पारंपरिक नहीं है। गोलियाँ? वो तो पिछली सदी की बात हो गई। अब उसकी असली ताकत उसकी चोली में छुपी आग है।
“झुलसा दे जो बदन को, ऐसी प्यास बुझा दे”
यहाँ प्रेम की वह तीव्रता है, जो केवल प्रियतम के सान्निध्य से ही तृप्त हो सकती है। प्रेम की यह तीव्रता उस आग की तरह है, जिसे फर्जी टेंडरों से खरीदा गया नगर परिषद् का फायर ब्रिगेड भी नहीं बुझा सकता
“पल्लू के नीचे छुपा के रखा है” — ऐसा प्रतीत होता है मानो श्रोता को शेक्सपियर के किसी नाटक का क्लाइमेक्स सुनाया जा रहा हो। यह पंक्ति हमारे समाज के उस गूढ़ सत्य को उजागर करती है, जहाँ रहस्यमयता और आकर्षण एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं। गीतकार साजिद-वाजिद ने यहाँ नारी के वस्त्रों को उसके पारंपरिक गरिमा-मय “पल्लू” के रूप में परिभाषित किया है। यह नारीवाद के सौंदर्य और “परदे में रहने दो, पर्दा न उठाओ” की सीख को स्थापित करने का प्रयास है।
“उठा दिया जाए तो हंगामा हो” — यह “हंगामा” दरअसल समाज की सामूहिक चेतना में व्याप्त उत्सुकता और भ्रम का प्रतीक है। इसलिए नायिका कई रहस्यों को अपने पल्लू में ही छुपा के रखना छाती है..शायद रहस्यवाद का इस से बढ़िया उदाहरण नहीं हो सकता..
“ज़रा हुक्का उठा, ज़रा चिलम जला”
वाह! यह पंक्ति सीधे लोकसंस्कृति से प्रेरित लगती है। यहाँ “हुक्का” और “चिलम” का प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है। यह हमारे ग्रामीण समाज की स्मृति को ताजा करता है, जहाँ ये चीजें सामाजिक मेलजोल और चर्चा के केंद्र बिंदु होती थीं। “हुक्का उठाना” और “चिलम जलाना” मानो ग्राम्य जीवन की तरफ इस समाज को पुनः आमंत्रित करने का प्रयास हो।
“जोबन से अपने दुपट्टा गिरा दूँ तो, कमले कुवारों का चेहरा खिले”
यहाँ नायिका सीधी-सादी लड़कों को यह संदेश दे रही है कि उनकी खुशियों की चाबी उसके दुपट्टे के गिरने में है।
यहाँ “जोबन” को साहित्यिक काव्य में नारी के सौंदर्य और यौवन का प्रतीक माना गया है। “दुपट्टा गिराना” मात्र नारी की गरिमा और समाज की उत्सुकता के बीच संघर्ष का प्रतीक है। यह पंक्ति भटके हुए युवाओं के कुंवारेव पण को कमल रुपी उपमा से नवाजा जा रहा है।
“हाय, मैं आँख मारूँ तो नोटों की बारिश हो”
वाह! यहाँ गीतकार ने पूंजीवाद और भावनात्मक शोषण का अद्भुत मिलन किया है। “आँख मारना,” जो एक सामान्य सा भाव है, उसे यहाँ एक आर्थिक क्रांति का रूप दे दिया गया है। कवि का यह तरीका असली मुद्रा विनिमय को भावनाओं और शारीरिक इशारों से जोड़कर प्रस्तुत करता है।
“संभावनाएँ” — आँख मारने से ही नोटों की बारिश होगी। यह अर्थव्यवस्था के लिए एक नया दृष्टिकोण हो सकता है। आरबीआई को ऐसे नवयुवाओं को विशेष संरक्षण प्रदान करना चाहिए, ताकि वे देशहित में आँख मारने का यह अभिनव कार्य जारी रखें।
“मैं तो हूँ जंगल की नाज़ुक हिरनिया रे, खूंखार जालिम शिकारी है तू”
इस पंक्ति में नायिका की नाजुकता और नायक की खूंखार छवि का बेमेल संयोजन दिखाया गया है। यह प्रेम के उस खेल को दर्शाता है, जिसमें हिरनिया मासूमियत से बचना चाहती है और शिकारी चालाकी से उसे फँसाना चाहता है।
यह प्रेम और डर का अद्भुत संगम है। “नाज़ुक हिरनिया” नारीत्व की कोमलता का प्रतीक है, जबकि “खूंखार जालिम शिकारी” पुरुषवादी मानसिकता का। यह पंक्ति समाज के उस अंतर्निहित संघर्ष को दर्शाती है, जहाँ नारी और पुरुष अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रेम और वर्चस्व की परिभाषा गढ़ते हैं।
“यूँ न गड्डी दिखा, यूँ न बॉडी दिखा”
यहाँ “गड्डी” और “बॉडी” आधुनिक युग के दिखावे का प्रतिनिधित्व करती है। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि आज की दुनिया में बाहरी आकर्षण और संपत्ति का कितना महत्व है। इस वाक्य में विरहनी ने स्पष्ट रूप से दिखावे को नकारने का प्रयास किया है।
अगर सक्चेप में कहें तो
यह गीत आधुनिक भारतीय समाज आईना है, एक काल जई रचना है । “आ प्रीतम प्यारे ” एक ऐसा गीत है, जिसे शेक्सपियर से लेकर तुलसीदास तक शायद सुनकर यही कहते, “वाह! यह है आधुनिक काव्य का ‘ अभिनव प्रयोग ।'”